वर्तमान युग में ज्ञान व विज्ञान विकास एवं उन्नति के शिखर पर कहे जाते हैं। यह बात भौतिक विद्याओं पर ही लागू कही जा सकती है। विज्ञान की इस उन्नति में मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान से विमुख व दूर किया है। मनुष्य संसार में उत्पन्न होते हैं व अपनी अपनी बड़ी व छोटी आयु का भोग करने के बाद काल कवलित हो जाते हैं परन्तु अधिकांश मनुष्यों को कभी अपने अस्तित्व व आत्मा सहित
इस संसार के उत्पत्तिकर्ता परमात्मा के विषय में विचार करने व इनके सत्यस्वरूप को जानने का अवसर ही नहीं मिलता। यदि कभी किसी के मन-मस्तिष्क में कोई शंका वा जिज्ञासा होती भी है तो अनुकूल वातावरण न होने अर्थात् शंकाओं का उत्तर न मिलने पर, इन विषयों का निभ्र्रान्त साहित्य उपलब्ध न होने और समाज में आध्यात्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा न होने के कारण वह विचार व शंकायें कुछ ही क्षणों में दब जाते हैं और मनुष्य पुनः भौतिक व कृत्रिम जीवन में ही लौट जाता व व्यस्त हो जाता है। हमारे देश में बड़ी संख्या में तथाकथित साधू, महात्मा व विद्वान हैं। बहुत से विद्वान अनेक टीवी चैनलों पर रात दिन ज्ञान बांटते रहते हैं परन्तु इन किसी में भी वह योग्यता नहीं है कि पश्चिम और संसार के अन्य देशों के लोगों को अपने विचारों से प्रभावित कर सकें। यह सभी धर्म व मत प्रवर्तक, विद्वान अथवा गुरु आपस में ही एक मत नहीं हैं। ज्ञान व विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं होता अपितु एक विषय में एक समान विचार रखता है। हमारे देश के विद्वानों व गुरु कहे जाने वाले लोगों में ईश्वर, उसकी उपासना, आत्मा का स्वरूप, आत्मा के कर्तव्य, जीवन के लक्ष्य और उसकी प्राप्ति के साधन आदि विषयों में समान विचार नहीं है। हमें लगता है कि हमारे मत-सम्प्रदायों के आचार्य स्वयं ही ईश्वर से कहीं दूर है। अध्यात्म मनुष्य को त्याग व तपस्या का जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा करता है। हमारे सभी ऋषि-मुनि व विद्वान वनों में रहकर साधना करते थे और अपनी आत्मा की उन्नति करते हुए ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार करते थे परन्तु आजकल के महात्मा बड़े-बड़े भवनों वा महलों के समान सुविधाओं से युक्त गृहों में रहते हैं। सभी अथाह सम्पत्तियों के स्वामी हैं। इनके जीवन में साधना भी देखने में नहीं आती। ऋषि दयानन्द में 18 घंटों तक समाधि लगाकर ईश्वर का ध्यान व प्रत्यक्ष करने की योग्यता थी। आजकल के साधु-महात्मा, आर्यसमाजी व सनातनी, कोई भी ध्यान व योग साधना में सिद्ध व तत्पर नहीं दीखता। सभी पुस्तकें पढ़ कर और देश की अशिक्षित व शिक्षित जनता के मनोविज्ञान को जानकर उनको सन्तुष्ट करने के लिये कथा किस्से सुनाकर व उन्हें अपना अनुगामी बनाकर उनसे येन-केन-प्रकारेण दान व दक्षिणा में धन की अभिलाषा से युक्त देखे जाते हैं। हमें नहीं लगता कि यह जनता का सही मार्गदर्शन कर रहे हैं। सत्य को न जानने और जनता को सत्य सिद्धान्तों को उपलब्ध न कराने के कारण यह साधु व महात्मा के नाम को भी सार्थक नहीं करते। अतः देश व समाज को ऐसे विद्वानों व प्रचारकों की आवश्यकता है जो धन के प्रलोभनों से मुक्त हों। इसके साथ वह ईश्वर, जीवात्मा सहित संसार व मनुष्य के कर्तव्यों का सत्य व यथार्थ ज्ञान भी रखते हों। ऐसे विद्वान देश व संसार से अविद्या का नाश करने का व्रत लेकर अपना पूरा जीवन महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम तथा पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी की तरह व्यतीत करें और सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं का इन महापुरुषों की भांति, देश व विदेश में सर्वत्र प्रचार कर मनुष्यों को अविद्या से निकाल कर उन्हें सच्चे आध्यात्मिक जीवन के महत्व व लाभों से परिचित करायें। ऐसा होने पर ही संसार के सभी मनुष्य सत्य के मार्ग पर लाये जा सकते जिससे उनका जीवन सार्थक हो सकता है।
हमारी इस सृष्टि को ब्रह्माण्ड में सर्वव्यापक सत्य-चित्त-आनन्दस्वरूप, अनादि, नित्य, अनन्त, सर्वज्ञ आदि गुणों से युक्त ईश्वर नामी सत्ता ने बनाया है। सृष्टि का प्रयोजन अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, जन्म-मरण के बन्धन में बंधी हुई अल्प-सामथ्र्य से युक्त जीवात्मा को उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःखरूपी भोग कराना है। एक अन्य प्रयोजन यह है कि मनुष्य योनि में जीवात्मा विद्या प्राप्त कर उसके अनुरूप सदाचरण आदि मुक्ति के साधनों को करके जन्म व मरण के चक्र से छूट जाये और एक परान्तकाल तक असीम सुख वा ईश्वर के सान्निध्य का आनन्द भोग सके। मनुष्य जब तक पूर्ण विद्या, आध्यात्म व भौतिक, सभी प्रकार की विद्याओं को, प्राप्त नहीं करेगा और उसके अनुरूप श्रेष्ठ कर्मों को नहीं करेगा, ईश्वर व आत्मा के स्वरूप को जानकर योगाभ्यास एवं समाधि अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार नहीं करेगा, तब तक वह कर्म-फल के बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। सत्य ज्ञान व आचरण न होने के कारण जीवात्मायें सत्यासत्य व ज्ञान-अज्ञान से युक्त शुभाशुभ कर्मों को करके कर्म-फल बन्धन में फंसी रहती हैं और बार-बार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होती रहती हैं। देश व विश्व में जो ज्ञान व विज्ञान विकसित किया है वह सराहनीय एवं उत्तम है परन्तु केवल सुख-सुविधाओं का भोग करना और ईश्वर व आत्मा से सम्बन्धित अपने कर्तव्यों को विस्मृत कर देना उचित नहीं है। मनुष्यों का भौतिक जीवन व्यतीत करते हुए सुखोपभोग वा धनोपार्जन के कार्यों में ही लगे रहना और ईश्वर व आत्मा के विषय में अध्ययन व साधना की उपेक्षा करना, अपने कर्तव्यों को विस्मृत करने के समान है। यह कार्य परजन्म में आत्मा को दुःख व कष्टों में डालने का अविवेकपूर्ण कार्य है। ईश्वर ने मनुष्य को उसके कर्मों व कर्तव्यों का बोध कराने तथा इस संसार की सत्यता से परिचित कराने के लिये ही सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान दिया था जो हमारे ऋषि-मुनियों व विद्वानों के प्रशंसनीय प्रयासों से आज तक सुरक्षित है। महर्षि दयानन्द की असीम कृपा से वेदों के मन्त्रों के संस्कृत व हिन्दी में प्रामाणिक अर्थों सहित उनके अनुगामी आर्य विद्वानों के अंग्रेजी आदि भाषाओं के अर्थ भी सुलभ हैं। ऋषि दयानन्द के ही प्रयत्नों का परिणाम है कि आज हमारे पास उपनिषदों, दर्शनों, मनुस्मृति आदि अनेक शास्त्रीय ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित सुलभ हैं और एक साधारण हिन्दी भाषी भी समस्त शास्त्रों को हृदयंगम कर ईश्वर साक्षात्कार के जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
जीवात्मा का गुण ज्ञान प्राप्ति व कर्तव्य-कर्मों को करना है। वेदों में ईश्वर की आज्ञा है कि मनुष्य वेद ज्ञान को ज्ञान होकर वेदानुकूल सद्कर्मां को करे। देश व समाज का उपकार करना तथा समाधि अवस्था को प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार कर कर्म के बन्धनों से मुक्त होना मनुष्य का कर्तव्य व धर्म है। मनुष्य शुभ व पुण्य कर्म करता है तो उसे सुख की प्राप्ति होती है और जो लोभ व अविद्या में पड़कर अशुभ, पाप व अधर्म के काम करता है, उसे दुःखों की प्राप्ति होती है। वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर हम सद्कर्म एवं अशुभकर्मों के विषय में ज्ञान प्राप्त करते हैं। असत्य गुण व कर्मों का त्याग तथा सत्य के ग्रहण से हम शुभ कर्मों को करते हुए मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होकर जन्म-जन्मान्तर में ईश्वर की कृपा से मोक्षावस्था को प्राप्त होकर जन्म-मरण के बन्धनों व दुःखों से मुक्त होते हैं। कर्म-फल के स्वरूप व इसके अनेक पहलुओं को स्पष्ट करने के लिए दार्शनिक विद्वान पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय जी आदि कुछ विद्वानों ने ग्रन्थ भी लिखे हैं। दर्शन ग्रन्थों में कर्म की विवेचना की गई है। समस्त शास्त्र हमें शुभ कर्मों का महत्व बताकर इन्हें करने की प्रेरणा देते हैं। असत्य को छोड़ना मनुष्य का कर्तव्य है जो विद्या की प्राप्ति से ही सम्भव होता है। सभी चोर जानते हैं कि चोरी करना अनुचित एवं दण्डनीय अपराध है। ऐसा ज्ञान रखने पर भी न केवल साधारण अपितु समाज के उच्च व शीर्ष पदों पर आसीन व्यक्ति भी लोभ के कारण बड़ी बड़ी चोरियां व घोटाले करते हैं। इसका कारण अविद्या ही है। इसके लिये लोभ पर विजय पानी होती है जिसे ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ तथा वेद आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित आत्मा के जन्म व मृत्यु विषयक चिन्तन व विवेचन करने से ही दूर किया जा सकता है। आजकल की हमारी सरकारें भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्म के अन्तर्गत सदाचार के नियमों व सिद्धान्तों के अध्ययन-अध्यापन का विरोध करते हैं। उनका ऐसा करना अज्ञान का ही कार्य है। राजनीति से जुड़े लोग धर्म और मत के अन्तर को नहीं जानते। धर्म तो मनुष्य जीवन में श्रेष्ठ गुणों को धारण करने को कहते हैं। इससे अमृत व मोक्ष की प्राप्ति होती है। कैान मनुष्य है जो जन्म व मरण के दुःखों पर विजय पाना नहीं चाहेगा? नास्तिक व अहंकारी मनुष्य ही सद्धर्म व इसके सिद्धान्तों के विरोधी हो सकते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार पर विजय पाना और जीवन को मानवता, समाज व देश के कार्यों के लिये समर्पित करना ही मनुष्य का धर्म है। धर्मनिरपेक्षता धर्म के इस महत्व की उपेक्षा करती है। इसी कारण हमारे देश में अविद्या पर आधारित मत-मतान्तर फल व फूल रहे हैं। जब तक मत-मतान्तर सत्य व वेद विहित धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को सर्वांश में ग्रहण नहीं करेंगे तब तक समाज में सुख व आनन्द का निवास नहीं हो सकता।
हमारे विद्वानों का मुख्य कर्तव्य है कि वह वेद और शास्त्रों का अध्ययन करें और उस ज्ञान को कर्म-फल सिद्धान्त के ज्ञान सहित जन-जन में पहुंचायें जिससे लोग अपने मनुष्य जीवन के महत्व को समझकर जीवात्मा के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के कार्यों में अपने जीवन को लगाकर मानवता व देश का उपकार कर सकें। हमने इस लेख में कर्म-फल सिद्धान्त की चर्चा की है। हम अपेक्षा करते हैं कि पूरे देश में सभी मतों के विद्वानों के मध्य कर्म-फल सिद्धान्त पर बहस हो। इसके साथ ही बच्चों को जन्म से और स्कूल व विद्यालयों में आरम्भ से अन्त तक मनुष्य जन्म के कारण 'कर्म' और कर्म-फल सिद्धान्त की शिक्षा दी जानी चाहिये। उन्हें यह बताया जाना चाहिये कि सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग मनुष्य जीवन का मुख्य एवं पावन पुनीत कर्तव्य है। यह भी बताया जाना चाहिये कि हम जो भी कर्म करते हैं उन सभी कर्मों का सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमात्मा साक्षी होता है। हमारा कोई भी कर्म परमात्मा की दृष्टि से बच नहीं सकता और कर्म बिना उसका फल भोगे नष्ट नहीं होता। कोई मत प्रवर्तक व आचार्य मनुष्य के किये हुए अशुभ कर्मों के फलों को ईश्वर से क्षमा नहीं करा सकता। जो ऐसा कहते हैं वह असत्य व अप्रमाणिक है। एक अविद्या की बात यह भी प्रचलित की जाती है कि अमुक मत व सम्प्रदाय की शरण में जाकर व किसी आचार्य व आचार्या के रोगी मनुष्य को छूकर रोग दूर हो जाते हैं। ऐसी सभी बातें अविद्या, अज्ञान व मूर्खता की हैं। इन पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये और भोली जनता को भ्रमित करने के लिये ऐसे लोगों को दण्डित किया जाना चाहिये। हमारा देश अजीब देश है जहां धर्म वा मत के नाम पर कुछ भी कहने व करने की छूट है। इन विषयों पर विचार कर नये कानून बनाना समय की आवश्यकता है जिससे कोई अविद्या का प्रसार कर लोगों को स्वधर्म व स्वकर्तव्यों से विमुख कर धर्मान्तरण वा मतान्तरण न कर सके। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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