भगत सिंह ने जून, 1928 में " अछूतों की समस्या " नामक एक लेख लिखा था जो 'किरती' में विद्रोही नाम से प्रकाशित हुआ था । इसमें वो लिखते हैं
" हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलानेवाला यूरोप कई सदियों से इन्कलाब की आवाज उठा रहा है। उन्होंने अमेरिका और फ्रांस की क्रांतियों के दौरान ही समानता की घोषणा कर दी थी। आज रूस ने भी हर प्रकार का भेदभाव मिटा कर क्रांति के लिए कमर कसी हुई है। हम सदा ही आत्मा-परमात्मा के वजूद को लेकर चिन्तित होने तथा इस जोरदार बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जाएगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं? हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता। अंग्रेजी शासन हमें अंग्रजों के समान नहीं समझता। लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है? "
ठीक यही विचार अम्बेडकर के भी रहे हैं. उन्होंने भी तत्कालीन कांग्रेस के नेताओ के समक्ष यही सवाल उठाया था. इस बात के लिए आज भी उन्हें यह कह कर बदनाम किया जाता है कि वो भारतीय राष्ट्रवाद के विरोधी और अंग्रेजो के एजेंट थे. जबकि यही सवाल भगत सिंह भी अपने लेख में उठाते हैं. इस लेख में भगत सिंह ने अपनी इस बात को स्पष्ट करते हुए सिन्ध के नूर मुहम्मद को उद्धृत किया है.
नूर मोहम्मद कहते हैं - " जब तुम एक इन्सान को पीने के लिए पानी देने से भी इनकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की माँग करो? जब तुम एक इन्सान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार माँगने के अधिकारी कैसे बन गए? "
अम्बेडकर ने भी यही कहा तो क्या गलत कहा ??
भगत सिंह भी यही बात कहते थे. उन्होंने न सिर्फ इस पर सहमति व्यक्त की बल्कि ऊंची जाति के हिन्दू नेताओं की सांप्रदायिक सोच और अछूतों पर की जाने वाली घटिया राजनीति पर भी प्रहार किया. भगतसिंह द्वारा लिखित आगे की पंक्तियां देखिए -
" बात बिल्कुल खरी है. लेकिन यह क्योंकि एक मुस्लिम ने कही है इसलिए हिन्दू कहेंगे कि देखो, वह उन अछूतों को मुसलमान बना कर अपने में शामिल करना चाहते हैं. "
भगत सिंह ने अछूतों के साथ की गई ऐतिहासिक बेईमानी और साजिश को गहराई से समझा है , ठीक वैसा ही जैसा अम्बेडकर ने समझा और उस पर विस्तारपूर्वक लिखा.
पढ़िए भगत सिंह की लिखी ये पंक्तियां -
" सब इन्सान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से। अर्थात् क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, इसलिए जीवन भर मैला ही साफ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक नहीं है, ये बातें फिजूल हैं। इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कह कर दुत्कार दिया एवं निम्नकोटि के कार्य करवाने लगे। साथ ही यह भी चिन्ता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्व जन्म के पापों का फल है। अब क्या हो सकता है? चुपचाप दिन गुजारो! इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लम्बे समय तक के लिए शान्त करा गए। लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया। मानव के भीतर की मानवीयता को समाप्त कर दिया। आत्मविश्वास एवं स्वावलम्बन की भावनाओं को समाप्त कर दिया। बहुत दमन और अन्याय किया गया। आज उस सबके प्रायश्चित का वक्त है। "
विडंबना ये है कि लंबे समय से वामपंथी अम्बेडकर को और बहुजन भगत सिंह को पूरी तरह अपना नहीं पाए हैं. इसी लेख में भगत सिंह ने लिखा है कि मदन मोहन मालवीय दलितों के उद्धार कि बात तो करते थे लेकिन मेहतर के हाथ से गले में माला डालने के बाद शरीर शुद्धि के लिए स्नान किया करते थे. ऊपर से भले ही वो उनके हितैषी होने का दिखावा किया करते थे लेकिन भीतर से उनके मन में अछूतों को नीच समझे जाने वाली भावना व्याप्त थी. आज के ज्यादातर वामपंथियों में अम्बेडकर और बहुजनों को लेकर ऐसी ही भावना रहती है. फर्क सिर्फ इतना है कि अब भेदभाव और जातीय श्रेष्ठता को बनाये रखने के उपकरण बदल गए हैं. वहीं बहुजन भगत सिंह से इसलिए खुद को नहीं जोड़ पाते क्योंकि भगत सिंह लंबे समय से एक खास विचारधारा की थाती बना कर रखे गए हैं.
कुलमिलाकर , आज दोनों धड़ों को आत्ममंथन की जरूरत है. उनके रास्ते अलग हो सकते हैं लेकिन मंजिल एक ही है.
भगत सिंह को नमन !
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