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महान मन्त्रद्रष्टा ऋषि दयानन्द के प्रति विख्यात लोगों की सम्मतियां

ऋषि दयानन्द ने वेदों का पुनरुद्धार किया और वेदों के प्रचार के लिये दिनांक 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज नामक संगठन स्थापित किया। वह इतिहास में प्रमुख समाज सुधारक हुए हैं। उनके समाज सुधार का आधार वेद थे। कोई ऐसा अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा सामाजिक कुरीति या परम्परा नहीं थी जिसका उन्होंने सुधार न किया हो। उन्होंने ईश्वर के सच्चे स्वरूप का प्रकाश किया।


ईश्वर की उपासना की सरल, सुबोध एवं ईश्वर का साक्षात् कराने वाली विधि सन्ध्या पद्धति भी उन्होंने दी। देश की आजादी का मूल मन्त्र 'स्वदेशीय राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है एवं सभी गुणों से युक्त विदेशी राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता' भी उन्होंने दिया। ऋषि दयानंद सभी विख्यात महापुरुषों में सर्वतोमहान एवं अद्वितीय थे। उनके विषयक में कुछ प्रसिद्ध महापुरुषों की सम्मतियां प्रस्तुत कर रहे हैं।


श्री अरविन्द घोष


वह दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक, विश्व को प्रभु की शरण में लाने वाला योद्धा, और मनुष्य व संस्थाओं का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्मा के मार्ग में उपस्थित की जाने वाली बाधाओं का वीर विजेता था और इस प्रकार मेरे समक्ष आध्यात्मिक क्रियात्मकता की एक शक्ति-सम्पन्न मूर्ति उपस्थित होती है। इन दो शब्दों का, जो कि हमारी भावनाओं के अनुसार एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, मिश्रण ही दयानन्द की उपयुक्त परिभाषा प्रतीत होती है। उसके व्यक्तित्व की व्याख्या की जा सकती है। 


एक मनुष्य, जिसकी आत्मा में परमात्मा है, चर्म-चक्षुओं में दिव्य तेज है और हाथों में इतनी शक्ति है कि जीवन-तत्व से अभीष्ट स्वरूप वाली मूर्ति घड़ सके तथा कल्पना को क्रिया में परिणत कर सके। वह स्वयं दृढ़ चट्टान थे। उनमें दृढ़ शक्ति थी कि चट्टान पर घन चलाकर पदार्थों को सुदृढ़ व सुडौल बना सकें। प्राचीन सभ्यता में विज्ञान के गुप्त भेद विद्यमान हैं, जिनमें से कुछ को अर्वाचीन विद्याओं ने ढूंढ लिया है, उनका परिवर्तन किया है और उन्हें अधिक समृद्ध व स्पष्ट कर दिया है, किन्तु दूसरे अभी तक निगूढ़ ही बने हुए है। इसलिए दयानन्द की इस धारणा में कोई अवास्तविकता नहीं है कि वेदों में विज्ञान-सम्मत तथा धार्मिक सत्य निहित है। 


वेदों का भाष्य करने के बारे में मेरा विश्वास है कि चाहे अंतिम पूर्ण अभिप्राय कुछ भी हो, किन्तु इस बात का श्रेय दयानन्द को ही प्राप्त होगा कि उसने सर्वप्रथम वेदों की व्याख्या के लिए निर्दोष मार्ग का आविष्कार किया था। जंगली लोगों की रचना कही जाने वाली पुस्तक के भीतर उसके धर्म-पुस्तक होने का वास्तविक अनुभव उन्होंने ही किया था। ऋषि दयानन्द ने उन द्वारों की कुंजी प्राप्त की है, जो युगों से बन्द थे और उसने पटे हुए झरनों का मुख खोल दिया। 


ऋषि दयानन्द के नियम-बद्ध कार्य ही उनके आत्मिक शरीर के पुत्र हैं, जो सुन्दर, सुदृढ़ और सजीव हैं तथा अपने कर्ता की प्रत्याकृति हैं। वह एक ऐसे पुरुष थे जिन्होंने स्पष्ट और पूर्ण रीति से जान लिया था कि उन्हें किस कार्य के लिए भेजा गया है।


मान. रवीन्द्र नाथ टैगोर


मेरा सादर प्रणाम हो उस महान् गुरु दयानन्द को जिसकी दृष्टि ने भारत के आध्यात्मिक इतिहास में सत्य और एकता को देखा और जिसके मन ने भारतीय जीवन के सब अंगों को प्रदीप्त कर दिया। जिस गुरु का उद्देश्य भारतवर्ष को अविद्या, आलस्य और प्राचीन ऐतिहासिक तत्व के अज्ञान से मुक्त कर सत्य और पवित्रता की जागृति में लाना था, उसे मेरा बारम्बार प्रणाम है। 


...... मैं आधुनिक भारत के मार्गदर्शक उस दयानन्द को आदरपूर्वक श्रद्धांजलि देता हूं, जिसने देश की पतितावस्था में सीधे व सच्चे मार्ग का दिग्दर्शन कराया। 


नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (आजाद हिन्द फौज)   


स्वामी दयानन्द सरस्वती उन महापुरुषों में से थे, जिन्होंने आधुनिक भारत का निर्माण किया और जो उसके आचार-सम्बन्धी पुनरुत्थान तथा धार्मिक पुनरुद्धार के उत्तरदाता है। हिन्दू समाज का उद्धार करने में आर्यसमाज का बहुत बड़ा हाथ है। रामकृष्ण मिशन ने बंगाल में जो कुछ किया, उससे कहीं अधिक आर्यसमाज ने पंजाब और संयुक्त प्रान्त में किया। यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा कि पंजाब का प्रत्येक नेता आर्यसमाजी है। स्वामी दयानन्द को मैं एक धार्मिक और सामाजिक सुधारक तथा कर्मयोगी मानता हूं। संगठन-कार्यों के सामथ्र्य और प्रयास की दृष्टि से आर्यसमाज अनुपम संस्था है। 


फ्रेंच लेखक रोम्यां रोलां


ऋषि दयानन्द ने भारत के शक्ति-शून्य शरीर में अपनी दुर्द्धर्ष शक्ति, अविचलता तथा सिंह-पराक्रम फूंक दिए हैं। 


स्वामी दयानन्द सरस्वती उच्चतम व्यक्तित्व के पुरुष थे। वह पुरुष-सिंह उनमें से एक था जिन्हें यूरोप प्रायः उस समय भूला देता है जब कि वह भारत के सम्बन्ध में अपनी धारणा बनाता है, किन्तु एक दिन यूरोप को अपनी भूल मानकर उसे याद करने के लिए बाधित होना पड़ेगा, क्योंकि उसके अन्दर कर्मयोगी, विचारक और नेता की उपयुक्त प्रतिभा का दुर्लभ सम्मिश्रण था। 


दयानन्द ने अस्पृश्यता व अछूतपन के अन्याय को सहन नहीं किया और उससे अधिक उनके अपहृत अधिकारों का उत्साही समर्थक दूसरा कोई नहीं हुआ। भारत की स्त्रियों की शोचनीय दशा को सुधारने में भी दयानन्द ने बड़ी उदारता व साहस से काम लिया। वास्तव में राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति के विचार को क्रियात्मक रूप देने में सबसे अधिक प्रबल शक्ति उसी की थी। वह पुनर्निर्माण और राष्ट्र-संगठन के अत्यन्त उत्साही पैगम्बरों में से था। 


पंडित मदन मोहन मालवीय 


महर्षि दयानन्द तपोमूर्ति थे। उन्होंने भारत में दिव्य ज्योति प्रकाशित की थी। उन्होंने हिन्दू समाज को पुनर्जन्म देने के सब प्रयत्न किये थे। उन्होंने मृतप्राय हिन्दू जाति में पुनः प्राणों का संचार किया था। 


लोकमान्य बालगंगाधर तिलक 


ऋषि दयानन्द जाज्वल्यमान नक्षत्र थे जो भारतीय आकाश पर अपनी अलौकिक आभा से चमके और गहरी निद्रा में सोये हुए भारत को जाग्रत किया। 


जर्मन प्रोफैसर डा. विण्टरनीज 


हमें वेदों के अध्ययन को प्रोत्साहन देने और यह सिद्ध करने में कि मूर्तिपूजा वेदसम्मत नहीं है, स्वामी दयानन्द के महान् उपकार को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। आर्यसमाज के प्रवर्तक वर्तमान जाति-भेद की मूर्खता और उसकी हानियों के विरुद्ध अपने अनुयायियों को तैयार करने के अतिरिक्त यदि और कुछ भी न करते तो भी वह वर्तमान भारत के बड़े नेता के रूप में अवश्य सम्मान पा जाते। 


साधु टी.एल. वास्वानी 


मेरे निर्बल शब्द ऋषि की महत्ता का वर्णन करने में अशक्त हैं। ऋषि के अप्रतिम ब्रह्मचर्य, सत्य-संग्राम और घोर तपश्चर्या के लिए अपने हृदय के पूज्य भावों से प्रेरित होकर मैं उनकी वन्दना करता हूं। 


 मैं ऋषि को शक्ति-सुत अर्थात् कर्मवीर योद्धा समझकर उनका आदर करता हूं। उनका जीवन राष्ट्र-निर्माण के लिए स्फूर्तिदायक, बलदायक और माननीय है। 


दयानन्द उत्कट देशभक्त थे, अतः मैं राष्ट्रवीर समझकर उनकी वन्दना करता हूं। 


प्रो. एफ. मैक्समूलर, लन्दन


स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू-धर्म के सुधार का बड़ा कार्य किया और जहां तक समाज-सुधार का सम्बन्ध है, वह बड़े उदार हृदय थे। वे अपने विचारों को वेदों पर आधारित और उन्हें ऋषियों के ज्ञान पर अवलम्बित मानते थे। उन्होंने वेदों पर बड़े-बड़े भाष्य किये, जिससे मालूम होता है कि वे पूर्ण अभिज्ञ थे। उनका स्वाध्याय बड़ा व्यापक था। 


पंजाब केसरी लाला लाजपत राय


स्वामी दयानन्द मेरे गुरु हैं। मैंने संसार में केवल उन्हीं को गुरु माना है। वह मेरे धर्म के पिता हैं और आर्यसमाज मेरी धर्म की माता है। इन दोनों की गोद में मैं पला। मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे गुरु ने मुझे स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करना, बोलना और कर्तव्य-पालन करना सिखाया तथा मेरी माता ने मुझे एक संस्था में बद्ध होकर नियमानुवर्तिता का पाठ दिया। 


मैडम ऐनी बेसेण्ट


स्वामी दयानन्द ही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ''हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए” का नारा लगाया था। आर्यसमाज के लिए मेरे हृदय में शुभ इच्छायें हैं और उस महान् पुरुष के लिए, जिसका आप आर्य आदर करते हैं, मेरे हृदय में सच्ची पूजा की भावना है। 


रेवरेण्ड सी.एफ. एण्डरुज 


स्वामी दयानन्द के उच्च व्यक्तित्व और चरित्र के विषय में निस्सन्देह सर्वत्र प्रशंसा की जा सकती है। वे सर्वथा पवित्र तथा अपने सिद्धान्तों के अनुसार आचरण करने वाले महानुभाव थे। वह सत्य के अत्यधिक प्रेमी थे।


कर्नल अल्काट (थियोसाफिकल सोसायटी के संस्थापक)


उनकी मृत्यु से भारत-माता ने अपने योग्यतम पुत्रों में से एक को खो दिया। 


ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री रेमजे मैकडानल्ड


आर्यसमाज समस्त संसार को वेदानुयायी बनाने का स्वप्न देखता है। स्वामी दयानन्द ने इसे जीवन और सिद्धान्त दिया। उनका विश्वास था कि आर्य जाति चुनी हुई जाति, भारत चुना हुआ देश और वेद चुनी हुई धार्मिक पुस्तक है।


सर यदुनाथ सरकार 


जब भारत के उत्थान का इतिहास लिखा जायेगा तो नंगे फकीर दयानन्द सरस्वती को उच्चासन पर बिठाया जायेगा। 


सर सैयद अहमद खां


स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी उन्हें देवता-तुल्य जानते थे, और वह निस्सन्देह इसी योग्य थे। वह इतने विद्वान् और अच्छे आदमी थे कि प्रत्येक धर्म के अनुयायियों के लिए सम्मान के पात्र थे। उनके समान व्यक्ति समूचे भारत में इस समय कोई नहीं मिल सकता। अतः प्रत्येक व्यक्ति का उनकी मृत्यु पर शोक करना स्वाभाविक है। 


हम समझते हैं कि ऋषि दयानन्द के आगामी ऋषि बोध पर्व पर उपर्युक्त पंक्तियों में दिए गए उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जानकर हम उत्साह एवं प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं और वेद प्रचार के कार्य को जारी रखते हुए आगे बढ़ सकते हैं। 


-मनमोहन कुमार आर्य


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