आर्यसमाज किशनपुर-राजपुर, देहरादून कादो दिवसीय प्रथम वार्षिकोत्सव प्रातः 8.00 बजे से आरम्भ हुआ जिसमें यज्ञ, ध्वजारोहण एवं सत्संग हुआ। यज्ञ की ब्रह्मा विदुषी बहिन सुमेधा जी थी। उन्होंने यज्ञ के महत्व पर प्रकाश डाला। यज्ञ के बाद वेदों में ईश्वर नाम की पताका ओ३म् ध्वज का आरोहण किया गया और राष्ट्रीय प्रार्थना के वेद मन्त्र का पाठ किया गया। हिन्दी पद्य में भी ध्वज-गीत का गान सामूहिक रूप से किया गया। ध्वजारोहण के बाद वैदिक सत्संग हुआ जिसके आरम्भ में भजनों का कार्यक्रम हुआ। आर्यसमाज के विद्वान पुरोहित श्री वेदवसु जी ने हारमोनियम एवं तबले की संगीतमय ध्वनि के मध्य कई भजन प्रस्तुत किये। ढोलक वादन श्री मोहर सिंह जी ने किया।
पहला भजन था 'प्रभु का नाम तू जप ले बन्दे जीवन में थोड़ा थोड़ा'। पं. वेदवसु शास्त्री जी ने कहा कि हम सबका जीवन धीरे धीरे मृत्यु की ओर जा रहा है। उन्होंने कहा कि चिन्तनशील मनुष्य अपने प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हैं। यदि हम जीवन में ईश्वर की उपासना एवं भक्ति नहीं करेंगे तो हमें वृद्धावस्था में पश्चाताप करना होगा। पुरोहित जी ने कहा कि हम आर्यसमाज जाकर वहां यज्ञों में उपस्थित होकर अपने जीवन को सुखमय बनाते हैं। उन्होंने कहा कि यदि हम अपने मनुष्य जीवन का सदुपयोग नहीं करेंगे तो हमें यह मनुष्य तन दुबारा नहीं मिलेगा। आचार्य वेदवसु जी ने कहा कि दो प्रकार के मनुष्य होते हैं। एक वह होते हैं जिनके सान्निध्य में मनुष्य को अच्छा लगता है और हम उनकी संगति करना चाहता है। दूसरे वह मनुष्य होते हैं जिनकी संगति अच्छी नहीं लगती और हम उनसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि परमात्मा की भक्ति करने से मनुष्य का जीवन सुरक्षित होता है और सज्जन धार्मिक लोग उसे पसन्द करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि प्रभु भक्तों का जीवन प्रेरक होता है। पं. वेदवसु जी ने दूसरा भजन सुनाया जिसके बोल थे 'ईश्वर का गुणगान किया कर कष्ट और क्लेश मिटाने को, जीवन की यह नाव मिली है भवसागर तर जाने को।'
आर्यसमाज के प्रधान श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने पुरोहित श्री वेदवसु शास्त्री जी का धन्यवाद किया और कार्यक्रम में उपस्थित सभी प्रमुख लोगों का परिचय श्रोताओं को दिया। उन्होंने कहा कि हमें अपने बच्चों के हाथों से निर्धन व पात्र लोगों को दान करवाना चाहिये। ऐसा करने से बच्चों में दान की प्रवृत्ति उत्पन्न होगी और उनका जीवन यशस्वी बनेगा। कार्यक्रम में ऋषिभक्त श्री उम्मेद सिंह विशारद जी भी उपस्थित थे। उन्होंने भी भजन गाये एवं अपने विचार भी प्रस्तुत किये। उनका गाया हुआ प्रथम भजन था 'प्रभु तू है दुनिया का माली, झूम झूम के डाली डाली, गाती है कोयल काली, प्रभु तू है दुनिया का माली।' उनके द्वारा गाया गया दूसरा भजन था 'प्रभु की वाणी है वेद माता, उसी पे अपना यकीन रखना। सत्य सनातन धर्म वेद में नित्य सत्य विद्या का भण्डार, जो जीने की राह बताता, उसी पे अपना यकीन रखना।।' श्री उम्मेद सिंह विशारद जी ने गढ़वाल क्षेत्र में अपने साथियों के साथ वहां प्रचलित पशु बलि प्रथा के विरुद्ध संघर्ष का विस्तार से परिचय भी दिया। कोर्ट के आदेश से अब यह बलि प्रथा रोक दी गई है। श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी ने भी गढ़वाल क्षेत्र में कार्य किया है। उन्होंने भी बलि प्रथा बन्द करने के लिये वहां लोगों को प्रेरित किया था। इससे जुड़े संस्मरण श्री शर्मा ने श्रोताओं को सुनाये। श्री प्रेम प्रकाश शर्मा ने कहा कि यदि आप आर्यसमाज और गुरुकुलों की रक्षा एवं पोषण नहीं करेंगे तो हमारे विरोधी लोग हमारी इन संस्थाओं पर कब्जा कर लेंगे। श्री शर्मा जी ने इसका उल्लेख कर आर्यसमाज के लोगों को सावधान किया। शर्मा जी ने वृद्ध लोगों के निष्क्रिय जीवन पर चिन्ता जताई और कहा कि उन्हें समाज में रचनात्मक व धर्म प्रचार के काम करने चाहियें। शर्मा जी ने आर्यसमाज के अन्तिम दसवें नियम का उल्लेख कर कहा कि हमें देश के संविधान और सरकारी नियमों का पालन करना चाहिये। जो लोग ऐसा नहीं करते वह देश के संविधान का पालन व आचरण न करने के दोषी हैं। उन्होंने कहा कि हमारा कर्तव्य है कि हम लोगों के सामने सच्चाई व तथ्यों को प्रस्तुत कर उन्हें अनावश्यक आन्दोलन व व्यर्थ की हिंसा व आगजनी करने से रोकें।
श्री प्रेम प्रकाश शर्मा के सम्बोधन के बाद द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की कन्याओं के भजन हुए। उनके द्वारा गाया गया प्रथम भजन था 'ओ३म् नाम के हीरे मोती मैं बिखराऊ गली गली, लूट ले जो लूटना चाहे शोर मचाऊ गली गली। बोलो ओ३म् ओ३म् ओ३म्।।' छात्राओं ने दूसरा भजन गाया उसके शब्द थे 'तुमने किसी पहाड़ को रोते हुए देखा है, ऋषिवर है वो पहाड़ जो सचमुच पिघल गया है।' दोनों ही भजन बहुत प्रभावशाली थे। श्रोताओं ने करतल ध्वनि कर गायिका बहनों का धन्यवाद किया। श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि मनुष्य को देश काल और परिस्थिति के अनुसार अपने कार्यों में परिवर्तन करना चाहिये। उन्होंने कहा कि सत्संग का स्वरूप भी हमारे उद्देश्यों को पूरा करने वाला होना चाहिये। हमें आर्यसमाज में युवाओं को आगे लाना चाहिये अन्यथा इसके दुष्परिणाम सामने आयेंगे। हमें युवकों की समस्यायें जाननी चाहियें और उनका समाधान करना चाहिये। शर्मा जी ने कहा कि हमें अपने सत्संगों व गतिविधियों में योग व ध्यान को भी स्थान देना चाहिये। शर्मा जी ने एक सुझाव यह दिया कि आर्यसमाज में बच्चों के होम वर्क कराने की व्यवस्था की जानी चाहिये। शर्मा जी ने आगे कहा कि घरों की बची हई दवाओं को इकट्ठा कर उसे डिस्पेंशरियों में पहुंचाना चाहिये। इसके साथ ही महीने में एक दिन किसी गरीब बस्ती के लोगों के साथ सामूहिक भोजन की व्यवस्था भी करनी चाहिये। शर्मा जी ने आर्यसमाज का उत्सव आयोजित करने वाले अपने सभी सहयोगियों का धन्यवाद भी किया।
सत्संग में मुख्य व्याख्याान द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की स्नातिका बहिन श्रद्धा जी का हुआ। उन्होंने बताया कि यज्ञ वस्तुतः क्या है? उन्होंने कहा कि यज्ञ सम्पूर्ण संसार का केन्द्र बिन्दु है। केवल यज्ञकुण्ड में किया जाने वाला अग्निहोत्र ही यज्ञ नहीं है अपितु इससे अतिरिक्त कुछ कार्य भी यज्ञ हैं। उन्होंने कहा कि यज्ञ का अर्थ देवपूजा, सगतिकरण एवं दान है। जहां इन तीन यज्ञ-घटकों का उपयोग होता है उसे यज्ञ कहते हैं। श्रद्धा जी ने पंचमहायज्ञों की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि सबको पंचमहायज्ञों को करना चाहिये। इनके करने से परिवार, समाज व राष्ट्र में सुख व समृद्धि आती है। श्रद्धा जी ने कहा कि प्रत्येक पदार्थ में कुछ दिव्य गुण होते हैं। उन गुणों को जानना, समझना व उनसे उपयोग लेना देवपूजा कहलाती है। उन्होंने कहा कि दिव्य गुणों से युक्त जड़ पदार्थ अचेतन देव कहलाते हैं। उन्होंने माता-पिता व आचार्यों को चेतन देव बताया और जड़ एवं चेतन देवों पर विस्तार से प्रकाश डाला। श्रद्धा जी ने कहा कि विभिन्न पदार्थों के गुणों को मिलाकर लाभ लेने को संगतिकरण कहते हैं। इसके लिये उन्होंने हलवे का उदाहरण दिया और कहा कि हलवा बनाने के लिये अनेक पदार्थों को मिलाना पड़ता है। इनके ठीक प्रकार से संगतिकरण से अच्छा व स्वादिष्ट हलुवा बनता है। उस हलुवे को दूसरों में बांटना ही दान है। उन्होंने कहा कि जिस संगतिकरण से किसी की हानि होती है, वह संगतिकरण नहीं होता। उन्होंने यह भी कहा कि मनुष्य का तन एक यज्ञशाला है। मनुष्य के शरीर में देवपूजा, संगतिकरण एवं दान आदि सभी क्रियायें निरन्तर होती रहती हैं। श्रद्धा जी ने कहा कि जिस परिवार में पुत्र माता-पिता का आज्ञाकारी हो, पत्नी समझदार व सहयोगी हो, परिवार के सभी सदस्य सन्तुष्ट स्वभाव वाले हों, वह घर स्वर्ग होता है। अपने सम्बोधन को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि हम यज्ञों को करके अपने जीवन को स्वर्ग बनायें। ईश्वर की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा कि ब्रह्म वह है जिसने हमारा शरीर और इसमें इन्द्रियों को स्थापित किया है तथा हमें देखने के लिए आंखें, रस के लिये जिह्वा, गन्ध के लिये नाक, सुनने के लिये कान तथ स्पर्श का ज्ञान कराने के लिये त्वचा आदि इन्द्रियां दी हैं। इसी के साथ श्रद्धा जी ने अपने सम्बोधन को विराम दिया। शान्ति पाठ के साथ वार्षिेकोत्सव के प्रथम सत्र का अवसान हुआ। कार्यक्रम में सुखबीर सिंह वर्मा, ललित मोहन पाण्डेय, ओम् प्रकाश, शत्रुघ्न कुमार मौर्य, भगवान सिंह राठौर, मनमनोहन आर्य, ईश्वरी देवी,योगेश भाटिया, सोनिया गांधी, ओम् प्रकाश महेन्द्रू, अशोक वर्मा, जितेन्द्र सिंह तोमर, यशवीर आर्य, कान्ता काम्बोज, रघुनाथ आर्य, सुरेन्द्र छिब्बर, सत्यपाल आर्य, मिथलेश जी, कृष्णा शर्मा, सारिका शर्मा, सरिता रावत आदि अनेक स्त्री पुरुष, द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की ब्रह्मचारणियां एवं बच्चे सम्मिलित थे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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