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मिसकाल अभियान सीएए के समर्थन में फेल 68 लाख मिसकाल आई

मिसकाल में पराजित अमित शाह 


133 करोड़ वाले देश में मोबाइल यूजर्स की संख्या 116.1 करोड़ है , और देश के चाणक्य-2 गृहमंत्री कह रहे हैं कि मिसकाल नंबर जारी होने के चार दिन के अंदर 68 लाख नंबरों से मिस काल मारकर सीएए को समर्थन दिया गया।


प्रतिशत में इसकी गणना करूँ तो देश के कुल मोबाईल यूज़र्स में मात्र 1•66% लोगों ने सीएए को समर्थन देने के लिए मिसकाल किया है।


आश्चर्य की बात यह है कि यह परिणाम अपने 10 करोड़ सदस्य होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसके अध्यक्ष तथा देश के गृहमंत्री की मिसकाल मार कर समर्थन करने की अपील का परिणाम है।


कहने का अर्थ यह है कि भाजपा के 10 करोड़ सदस्य ही "सीएए" के समर्थन में नहीं हैं वर्ना जिस पार्टी का आईटी सेल और सर्वे में बढ़चढ़ कर अपने मुद्दों पर वोट करने वाला नेटवर्क 4 दिन में अपनी 10 करोड़ की संख्या के मात्र 15% लोग ही पार्टी के अभियान में शामिल हों ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।


ध्यान दीजिए कि इस प्रकार के सर्वे या मिसकाल करके समर्थन माँगने पर आने वाली प्रतिक्रिया मात्र कुछ घंटों में ही सर्वाधिक होती है , और संघ तथा भाजपा जैसे संगठित संगठन के लिए तो 10 करोड़ मिसकाल पहुचाना मात्र कुछ घंटे का खेल है , पर 100 घंटे में मात्र 66 लाख मिसकाल गृहमंत्री अमित शाह की समर्थन की अपील के औंधे मुँह गिर जाने का प्रतीक है।


अब भी इस सरकार में ज़रा भी शर्म और नैतिकता बची हो तो वह देश से माफी माँग कर "सीएए" को वापस लेने का ऐलान कर दे , क्युँकि अब देश की हवा उसके विरुद्ध बहने लगी है।


दरअसल मोदी सरकार-1 और मोदी सरकार-2 में बहुत बड़ा फर्क "अमित शाह" हैं , जिनके गृहमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस सरकार में अमित शाह से बहुत पीछे चले गये हैं और स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि मोदी सरकार-2 की ड्राईविंग सीट पर अमित शाह बैठे हैं और वह 2024 में मोदी की जगह स्वयं प्रधानमंत्री बनने की तैय्यारी कर रहे हैं।


संभवतः इस कारण मोदी-शाह में टकराव भी हो और कल को नरेन्द्र मोदी भविष्य के आडवाणी बन जाएँ। इसके स्पष्ट संकेत भी दिखने लगे हैं जब कि गृहमंत्री अमित शाह की संसद में "एनआरसी" लाने की स्पष्ट घोषणा को नकारते हुए नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की कि "एनआरसी" पर कोई चर्चा नहीं , एनआरसी की कोई संभावना नहीं।


पिछले 19 साल के मोदी-शाह के इस गठजोड़ में किसी मुद्दे को लेकर ऐसा विरोधाभास मैंने पहले कभी नहीं देखा , संभवतः यह आगे और टकराव में बढ़ेगा। वैसे मेरा अनुभव है कि दो गुजराती पार्टनर कभी ऐसी लड़ाई नहीं करते जिसमें दोनों का नुकसान हो।


देखा जाए तो भाषण और चापलूसी पसंद नरेन्द्र मोदी , अमित शाह से बहुत बेहतर हैं , नरेन्द्र मोदी इस्लाम की तारीफ करते हैं तो कुरान की व्याख्या और तारीफ भी करते हैं , अल्लाह के 99 नामों की व्याख्या करते हैं , और मोदी सरकार-1 में माबलिंचिंग के अतिरिक्त मुसलमानों के खिलाफ ऐसा कुछ निर्णय भी नहीं लिया पर अमित शाह से ऐसी उम्मीद बेमानी है , वह हर मामले में हार्डकोर हैं।


एनआरसी पर पीछे हटना भी मोदी का फैसला है , पर सीएए पर उनके अपने ही 36 संगठनों की उदासीनता से अमित शाह कुछ सीखेंगे ?


शायद नहीं , क्युँकि उनको 2024 में नरेन्द्र मोदी से भी अधिक हार्डकोर हिन्दू नेता के तौर पर उभरना है इसलिए वह ऐसा करके अपनी छवि खंडित नहीं करेंगे।दरअसल अमित शाह बेहद निर्णायक और ज़िद्दी नेता हैं, जो अपनी रणनीति पर पुनर्विचार शायद ही कभी करते हों। महाराष्ट्र में शिवसेना के सामने ना झुकना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।


पर देश की जनता , सब कुछ , कुछ दिन तक ही बर्दाश्त करती है , उसका उदाहरण है "झारखंड"। "370" , "ट्रिपल तलाक" , "सीएए" , "राममंदिर" के सारे तीर एक साथ चलने के बावजूद वहाँ के आदिवासियों ने इनका वहाँ पैकअप कर दिया।


डाक्टर मनमोहन सिंह ने 2014 के लोकसभा चुनावों के पहले कहा था कि "नरेन्द्र मोदी भारत के लिए विद्धंवसक साबित होंगे" तो वह तो हो गये पर अमित शाह भारत के लिए क्या होंगे ? "सुनामी"।


 


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