Hot Posts

6/recent/ticker-posts

21 वी सदी में भी भारत धार्मिक. पाखंड. जातिवाद. नफरत. शोषण. अंधविश्वास. अंधश्रद्धा का शिकार है: रामदुलार यादव

संत शिरोमणि गुरु रविदास के जन्म दिवस 9 फरवरी 2020  के अवसर पर विशेष:
      ज्ञान मार्गी शाखा के संत शिरोमणि, महान व्यक्तित्व, रूढ़िवाद, परंपरावाद, पाखंड, मूर्तिपूजा के घोर विरोधी गुरु रविदास जी का जन्म 9 फरवरी 1415 माघ पूर्णिमा रविवार को ग्राम मडुवाडीह वाराणसी उत्तर प्रदेश में हुआ,


इनके पिता रघु व माता घुरबिनिया का पारंपरिक व्यवसाय चमड़े द्वारा जूते का निर्माण करना रहा, गुरु रविदास ने भी निर्भीकता पूर्वक इस उपरोक्त तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा कि मेरा परिवार मृत पशुओं को उठाने का कार्य बनारस के आस-पास के गांव में करता था, वे 7 वर्ष की अवस्था से ही पिता के व्यवसाय में लग गये। संत रविदास कुशाग्र बुद्धि, विलक्षण प्रतिभा के धनी विचारशील बालक थे इसलिए बनारस के पास निर्गुनियों, सन्तों, महात्माओं से मिलकर सत्संग व अध्ययन किया करते थे। वे केवल आध्यात्मिक चिंतन ही नहीं बल्कि सामाजिक, धार्मिक, पाखंड व असमानता के बारे में भी मनन करते रहते थे कि भारतीय समाज में आज कितनी असमानता व शोषण है, ऊंच-नीच का भेदभाव चरम पर है, वंचित समाज में भय व्याप्त है, जनता मानसिक गुलामी का जीवन जी रही है। मै उन्हें इस अंधकार से निकालने का प्रयत्न करूंगा। वे अनुभव व काव्य के माध्यम से ब्राह्मणवाद, सामंतवाद के विरुद्ध जन-जागरण का कार्य करते रहे। उन्हें काशी के पाखंडियों, मूर्ति पूजकों व शोषकों के घोर विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन गुरु रविदास कभी विचलित नहीं हुए जाति व्यवस्था पर चोट करते रहे उन्होंने कहा कि:- 
                        “जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान”
                         मोल करो तलवार की पड़ी रहे जो म्यान”
      संत रविदास ने किसी पाठशाला में अध्ययन नहीं किया लेकिन निर्गुण संत नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना की संगत में व निज अनुभव से समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, कुरीतियों के बारे में सोच विचार कर इनका मन व्यथित रहता था, यद्यपि उन्होंने अपने गुरु के बारे में कोई भी अपनी रचनाओं में वर्णन नहीं किया है। लेकिन इन्होंने संत कबीरदास को बड़ा भाई व गुरु समान माना है उन्होंने कहा है कि:-
                        “तिहरे लोक परसिध कबीरा”
     रविदास जी मानवतावादी रहे, जो भी कुछ उनके पास काम धंधे से धन बचता वह साधु संतों की सेवा में खर्च कर देते थे उनका मन काम में कम, सेवा में ज्यादा लगता था, विवाह होने के बाद भी इनके स्वभाव में कोई परिवर्तन न होता देख पिता रघु ने इन्हें घर से अलग कर दिया आर्थिक समस्याओं का सामना करते हुए भी इन्होंने दीन, दुखियों की मदद करना अपना पुनीत कर्तव्य समझा, उन्होंने कहा है कि:-
                    “दारिदु देख सब को हंसै, ऐसी दशा हमारी”
    वे जीवन भर पैतृक व्यवसाय में लगे रहे गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संत, महात्माओं की सेवा करते रहे वह दिखावे के जीवन को तिलांजलि दे सत्य, संतोष और सदाचार को उत्तम जीवन जीने का आधार मानते थे दीन, दुखियों की सेवा तन, मन, धन से करते थे सेवा-भाव उनमें कूट-कूट कर भरा था। उन्होंने कहा है कि:-
                    “करूँ डंडौत चरण पखारूँ, तन, मन, धन संतन पर वारों”||
   संत शिरोमणि रविदास उस काल में पैदा हुए जब हिंदू समाज में घोर निराशा का वातावरण था मनुस्मृति के कारण शिक्षा पर एक वर्ग का एकाधिकार था एक वर्ग राजा, महाराजा, सामंतो, साहूकारों का था जो विलासिता में आकंठ डूबा हुआ था दूसरा हिंदू समाज साधारण धनहीन, अशिक्षित, बेबस, लाचार, अत्यंत दु:खी थे| इनमे बाल-विवाह, पर्दाप्रथा, बहु-विवाह, सतीप्रथा आदि कुरीतियां व्याप्त थी। अशिक्षा व गरीबी के कारण वे लोग धनवानों के अत्याचार, शोषण झेलने के लिए विवश रहते थे।
               
 समाज में नारी जाति की दशा अति सोचनीय थी। उसे समाज में कोई महत्व नहीं दिया जाता था। हिंदू और मुस्लिम समाज में नारी की स्थिति एक दासी से अधिक नहीं थी। वेद पुराण के नाम पर समाज में अंध श्रद्धा फैलाई जा रही थी। इसका दुरुपयोग करके जनसामान्य को भ्रमित किया जाता था। शिक्षित लोग जनसामान्य को वस्तु स्थिति का ज्ञान ही नहीं होने देते थे। जिससे वे अंधविश्वास, पाखंड से कभी मुक्त न हो सके।
   संत रविदास ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों, परंपराओं, वाह्य आडम्बरों, ऊंच-नीच, जात-पात, निरर्थक मिथकों, हानिकारक  अंधविश्वासों को समूल नाश करने की दिशा में अनुकरणीय व महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य किया। सामाजिक अध्: पतन को दूर करने का प्रयास किया| उस व्यवस्था को नकार दिया जहां श्रेष्ठता का आधार सदगुण नहीं उच्च जाति में जन्म लेना रहा है। जहां उच्च जाति में पैदा हुआ निम्न प्रवृत्ति का व्यक्ति सम्मान पा जाता था योग्य और चरित्रवान व्यक्ति जाति व्यवस्था के कारण सम्मान पाने से वंचित रह जाता था उसे सर्वांगीण विकास का अवसर नहीं प्राप्त होता था। संत शिरोमणि रविदास जैसे युग सृष्टा संत ने व्यवहारिक जीवन दृष्टि अपनाकर वैचारिक क्रांति का आह्वान किया। जन-जन में जागरण पैदा किया जिससे जन-समुदाय अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर उदात्त जीवन जी सके।
    संत रविदास ने कहा कि:-
                       “गली, गली को नीर. बहि आयो, सुरसरि जाय समायो।
                         संगति के परताप महातम नांव गंगोदिक् पायो।| 
    संत रविदास सत्कर्म में विश्वास करते थे उनका मानना था कि अपने गृहस्थ के संचालन के लिए दूसरे पर निर्भर न रहें। उसके बाद यदि कुछ बचे तो दीन, दुखियों की सेवा में अपने धन को लगाने में संकोच न करें। वे मन की निर्मलता की बात हमेशा करते थे तथा संत महात्माओं से आह्वान करते थे कि ईश्वर घट-घट में समाया है वह निर्मल मन, अच्छे आचरण से अनुभव किया जा सकता है उसका न रूप है, न रंग है वह परम तत्व है। मूर्ति और तीर्थ मे वह दूर-दूर तक नहीं है। कहा जाता है कि एक बार उनके गांव के लोग उनसे आग्रह करने लगे कि गंगा स्नान चलना है, लेकिन गुरु रविदास जी ने कहा कि मैं गंगा स्नान नहीं जाऊंगा। मैंने जूती देने का जिससे वादा किया है न दे पाऊंगा तो मै अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहा हूं। मेरे मन में पीड़ा रहेगी। ग्राम वासियों से कहा कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” ऐसे महान संत रविदास को मीरा ने अपना गुरु स्वीकार किया था।
    संत रविदास का काशी में ही 6 मार्च 1528 ईसवी को निर्वाण हुआ। वह मानवतावादी संत थे उन्होंने अपना सारा जीवन मानव कल्याण में लगा दिया। गृहस्थ जीवन में रहकर भी त्याग, तपस्या की प्रतिमूर्ति रहे, वह जाति व्यवस्था के विरोधी, मानवता के पुजारी, स्वतंत्र विचारक, मृदुभाषी, जनकल्याण के प्रबल पक्षधर, सहज स्वाभाविक, निष्काम, कर्मयोगी थे। आज 21 वी सदी में भी भारत धार्मिक. पाखंड. जातिवाद. नफरत. शोषण. अंधविश्वास. अंधश्रद्धा का शिकार है,  संत शिरोमणि रविदास जैसे महात्मा के विचार देश, समाज को सही दिशा दे सकता है।


                                                                            भवदीय 


                                                                         राम दुलार यादव 
                                                                            अध्यक्ष 
                                                                      लोक शिक्षण अभियान ट्रस्ट


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ