अदम्य साहस, प्रचंड मनोबल के धनी, कुशल सेनानायक, विलक्षण कूट-नीतिज्ञ, देदीप्त्मान आभामंडल, मनमोहक मुस्कान, प्रखर चिन्तक छत्रपति महाराज शिवाजी का जन्म 19 फरवरी 1630 में हुआ था, इनके पिता शाह जी, माता जीजाबाई जाधव कुल की कन्या थी, शिवाजी जब माँ के गर्भ में थे तभी उनके पिता शाह जी दक्षिण अभियान में निकली मुग़ल सेना का प्रतिरोध न कर पाने के कारण अपनी जागीर छोड़कर पलायन कर गये, माँ जीजाबाई पीछे छूट गयीं, किसी तरह वह शिवनेरी दुर्ग में शरण लेने में सफल रहीं, इसी दुर्ग में विश्व विख्यात योद्धा का जन्म हुआ, यही बालक लोक में शिवाजी के नाम का डंका बजा अलग राज्य का राजा बन छत्रपति शिवाजी हो गया।
शिवाजी जन्म से ही संघर्षों में पले, बढे, शिवनेरी दुर्ग में माँ जीजाबाई अपने पुत्र के साथ 6 वर्ष भयंकर पीड़ा सहकर बिताये, उन्हें शाह जी द्वारा उपेक्षित किया जाना लगातार कष्टकर लगता रहा, लेकिन उनमे कठिन परिस्थितियों में जीने की कला, साहस व शालीनता आ गयी थी। उन्हें विश्वस्त सूत्रों से पता लगा कि मुग़ल सेना शाह जी के परिवार को बेसब्री से खोज रही है, तथा इनके किसी सैनिक ने लोभ, लालच के कारण शिवनेरी दुर्ग का पता भी बता दिया है, मुगलों के लोग वहां पहुँचे, जीजाबाई उनसे चिघाडती हुई उलझ गयी,
लड़ाई-झगड़े में उनके किसी विश्वस्त ने शिवाजी को दुर्ग से बाहर अन्यत्र स्थान पर ले जाने में कामयाब हो गया, लेकिन जीजाबाई मुगलों की कैद में आ गयी। उनके विश्वस्त सेवक तीन वर्ष तक शिवाजी को पर्वतमालाओं में घुमाते-फिरते छिपाते रहे, अब 9 वर्ष के बालक के मन मस्तिष्क में विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित धीरे-धीरे होने लगी थी, जीजाबाई किसी तरह मुगलों के शिविर से मुक्त हो अपने पुत्र से मिल गयी। पार्वत्य प्रदेशों में जीवन बिताते हुए माता ने कठिन परिस्थितियों में लड़ाई लड़ने वाले कृष्ण, अर्जुन के बहादुरी के किस्से पुत्र को सुनाया करती कि किस प्रकार अज्ञातवास के बाद पांडवों ने कौरवों पर विजय प्राप्त किया, अन्याय, अनाचार के विरुद्ध लड़ना शिवा के मस्तिष्क में कूट-कूट कर भर दिया, तथा अत्याचारी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए पुत्र को तैयार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चूँकि शाह जी ने दूसरी शादी कर ली थी इसलिए वे जीजाबाई व शिवा से अधिक सम्बन्ध नहीं रखते थे फिर भी उन्होंने पूना में शिवाजी को पूर्ण प्रक्षित करने के लिए सन्त स्वरुप दादा कोण्डदेव को नियुक्त कर दिया, उन्होंने शिवा को शिक्षा ही नहीं दिया बल्कि उस पहाड़ी क्षेत्र के निवासियों को उबड़ पर्वतीय क्षेत्र को हरा भरा बना दिया। किसानों से बहुत कम कर ले कर जागीर को धन-धान्य से संपन्न कर दिया। मुठा नदी के तीर पर रंग महल नामक प्रासाद जो सभी सुविधाओं से युक्त था सन्त कोण्डदेव माता जीजाबाई शिवाजी के लिए बनवाया। इसी रंग महल में शिवा का विवाह सई बाई जो सौम्य स्वभाव की, पति परायण, मृदुभाषी महिला थी हुआ जीजाबाई के साथ रहने लगी। सन्त तुकाराम, समर्थ गुरु रामदास को भी शिवा सम्मान स्वरूप गुरु ही मानते थे।
शिवा जी को प्रथम सफलता तोरण दुर्ग के कोषागार और शस्त्रागार पर कब्ज़ा करने से मिली। शिवा में दुश्मन को परास्त करने के सभी गुण विद्यमान थे इसलिए उन्होंने बीजापुर के दरबार की भी उपेक्षा करते हुए धन देकर कुछ अधिकारियों को अपने पक्ष में कर लिया पूना के दक्षिण पश्चिम स्थित दुर्ग पर वहां के एक रक्षक को धन देकर सिंह गढ़ पर भी कब्ज़ा कर लिया। सफल कूट-नीतिज्ञ शिवा ने जागीरदार मराठा मोरे के षड्यंत्र को जो उन्हें बीजापुर दरबार ने भेजा था जो शिवा के प्राण लेना चाहता विफल कर दिया। सेना के आदमियों ने मराठा सरदार मोरे का वध कर जागीर को अपने अधीन कर लिया। अब दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के विरुद्ध उसके पुत्र औरंगजेब ने षड्यंत्र कर कारागार में डाल दिया खुद शाहंशाह अपने को घोषित कर मुग़ल साम्राज्य के विस्तार में लग गया। वह क्रूर शासक था उसने प्रजा पर इतना अत्याचार किया कि शिवाजी चुप नहीं रह सके, अपने 400 से अधिक सैनिकों को लेकर अहमदनगर पर छापा मार औरंगजेब के अस्तबल से 1000 से अधिक अरबी घोड़ों के साथ पुन: पर्वतीय स्थान पर बैठ गये। औरंगजेब इस समाचार को सुनकर आग बबूला हो गया तथा क्रोधित हो कहा कि “उस ‘पहाड़ी चूहे’ की सारी जागीर ध्वस्त कर दी जाय”, वर्षात के मौसम ने शिवाजी का साथ दिया जब औरंगजेब कोई कार्यवाही का आदेश करता उसे शाहजहाँ की तबियत ख़राब का समाचार मिला वह आगरा की ओर चल पड़ा, उधर बीजापुर की बेगम उलिया ने सामंतों को आदेश दिया बिद्रोही जागीरदार शिवा का दमन कर दिया जाय, अफजल खां ने बीजापुर से प्रस्थान कर दिया, शिवा ने अफजल खां का वध कर दिया अब इस विजय से उन्हें अस्त्र, शस्त्र, अश्व, गज, ऊँट तथा तोपखाने के साथ रसद और धन की भी प्राप्ति हुई। उन्होंने शाइस्ता खां को शिकस्त दे उसकी तीन अंगुली काट दी। अब शिवा की दृष्टि समृद्ध वाणिज्य केन्द्र सूरत पर पड़ी। सूरत शहर की लूट ने उन्हें माला-माल कर दिया। करोड़ों रुपये, सोना, चाँदी घोड़ों पर लाद रायगढ पहुंच गये। 1665 में राजा जय सिंह दक्षिण की ओर प्रस्थान किया, उससे भी शिवा ने सन्धि कर ली।
औरंगजेब के आमंत्रण पर शिवा जी जय सिंह के पुत्र राम सिंह के साथ 1666 में दीवाने खास में उपस्थित हुए लेकिन उचित सम्मान न मिलने के कारण बादशाह के सामने ही उन्होंने अपमान करने का विरोध कर दिया उन्हें जयपुर निवास में भेज दिया गया और चारों ओर से पहरेदार लगा दिये, अपने पूरे जीवन काल में प्रथम बार शिवा के आँखों में आंसू निकले लेकिन उनके पुत्र सम्भा जी ने उन्हें सांत्वना दी। बीमारी का बहाना बना औरंगजेब की कारा से भी अपने पुत्र सहित मुक्त होना यह शिवाजी के अदम्य साहस, कुशल रणनीतिकार, प्रत्युत्पन्नमति, धैर्य का परिचायक है। औरंगजेब निराश हो गया।
आगरा से लौटकर फिर वह अपने राज्य का कार्य करने लगे 1670 में शिवाजी ने अपने सभी किले मुगलों से मुक्त करवा लिए दक्षिण भारत में सर्वशक्तिमान बादशाह के रूप में स्थापित कर लिया। रायगढ़ में राज्याभिषेक का उत्सव मनानेके लिए राजधानी को सुसज्जित किया गया, लेकिन बिडम्बना यह है कि उस राज्य का कोई विद्वान ब्राह्मण मराठा, पिछड़े वर्ग का होने के कारण उन्हें शूद्र समझकर राज्याभिषेक के लिए तैयार नहीं हुआ, शिवाजी ने अपने विश्वस्त को कशी भेजा लेकिन रायगढ़ के पुरोहितों ने उन्हें भी राज्याभिषेक के लिए मना कर देने के लिए तैयार कर लिया, शिवाजी के मंत्री ने फिर गंगा भट्ट नामक ब्राह्मण को सोने की मुहरें देकर मनाया फिर कशी के उस पुरोहित ने शिवा का राज्याभिषेक किया। माँ जीजाबाई भी राज्याभिषेक में 6 जून 1674 को शामिल हो अपने पुत्र को आशीर्वाद दिया। वह बीमार थी उन्हें जीवन में अनवरत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। 18 जून 1674 में उनकी मृत्यु हो गयी, शिवाजी को माता के वियोग का दुःख सहन नहीं हो रहा था वह भी संघर्षरत पूरे जीवन रहे वह बीमार पड गये जब 1676 में वह स्वस्थ्य हुए तो दक्षिण पर विजय के लिए निकल पड़े, कर्नाटक, मैसूर पर विजय प्राप्त कर लिया, उनका अखण्ड राज्य आज पाकिस्तान तक फैला था। वे अब थक गये थे उनका शरीर मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर दिया, 4 अप्रैल 1680 को शिवा रूपी सूर्य अस्त हो गया। शिवाजी ने अलग राज्य स्थापित कर इतिहास के प्रथम पातशाही की स्थापना की।
आज जो शिवाजी के नाम की माला जपते हैं, उनके द्वारा स्थापित मान्यताओं पर एक कदम भी नहीं चलते, शिवाजी ने कभी भी किसी मन्दिर, मस्जिद को क्षति नहीं पहुंचाई, वे सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। वे महिलाओं को चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान या किसी धर्म की मानने वाली हों, उन्हें माँ, बहन व बेटी मानते थे। उन्होंने अपने सेना के सैनिकों को भी महिलाओं का सम्मान करने का पाठ पढाया था, कुछ स्वार्थियों ने जो शिवाजी का कभी सम्मान उनके जीवन काल में नहीं किये आज सबसे बड़े शिवा के विचार का वाहक मानते हैं तथा उन्हें हिन्दू बादशाह मानने की भूल करते है, जबकि उनमे सभी धर्मों के प्रति आदर सम्मान था। वे मानवता के पुजारी अन्याय से लड़ने वाले योद्धा थे, उनकी सेना में हिन्दू, मुसलमान दोनों मुगलों से युद्धरत रहे, इतिहासकारों का मानना है कि उनकी फ़ौज में 37000 (सैतीस हजार) मुसलमान सैनिक थे, मै उनके जन्म-दिन के अवसर पर आज जो देश में असहिष्णुता का वातावरण बन रहा है असहमति को देशद्रोह की संज्ञा दी जा रही है, नफ़रत, ईर्ष्या, भय, डर फैलाई जा रही है हमें महान योद्धा के जन्म-दिन पर संकल्प लेना चाहिए कि हम भारत के लोग आपस में सहयोग, प्रेम, सद्भाव, भाईचारा बढाकर देश को मजबूत बनाने के लिए कार्यरत रहेगे।
लेखक:-
राम दुलार यादव
अध्यक्ष
लोक शिक्षण अभियान ट्रस्ट
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