गाजियाबाद :सामाजिक, शैक्षणिक, आध्यात्मिक क्रान्ति के पुरोधा छुवाछूत, असमानता, ऊँच-नीच, अशिक्षा, अन्याय, पाखण्ड, अन्धविश्वास, रूढ़िवाद, दुर्व्यसन के घोर विरोधी समता,
समानता, बन्धुता, न्याय, प्रेम व सहयोग के प्रबल पक्षधर, सन्त गाडगे महराज का जन्म 23 फरवरी 1876 को ग्राम शेणगाँव जनपद अमरावती महाराष्ट्र में झिंगरा जी सखूबाई के यहाँ हुआ, उनके समाज में सामाजिक बुराई, पशुबली व शराब देवता को प्रसन्न करने तथा किसी भी समारोह में मांस-शराब के अधिक प्रचलन के कारण झिंगरा जी इतने शराब के आदि हो गये की उनकी सारी जमीन-जायजाद दुर्व्यसन की भेंट चढ़ गयी, अन्त समय में उन्होंने अपनी पत्नी सखूबाई से कहा कि घर में जो देवता की मूर्ति है सखू उसे तालाब में फेंक आ, इसी देवता को प्रसन्न करने के कारण
आज मेरी यह गति है, मेरा बेटा डेबू इन रूढ़िवादी कुरीतियों का शिकार न हो मेरी अन्तिम इच्छा यही है यह कहते हुए अपने प्राण त्याग दिये। उनकी पत्नी सखू ने अपने बेटे का पूरा ध्यान रखा इसी कारण डेबू जी शाकाहारी रहे, पिता के न रहने पर इनका लालन-पालन इनके नाना हबीरराव के यहाँ हुआ, इनके नाना बड़े किसान थे उन पर 65 एकड़ जमीन थी लेकिन इनके मामा में दुर्व्यसन मांस, मदिरा का इतना अधिक सेवन बढ़ गया था कि उन्होंने भी अपनी जमीन साहूकार के यहाँ कागज रख कर रुपये लेकर दुर्व्यसन में सब गवां दिया। अब डेबू के सामने जमीन के कागज मुक्त कराने का संकट था, उन्होंने घोर परिश्रम कर, कष्ट झेलकर सारा अनाज कई साल तक साहूकार को देते रहने के बाद भी उसने कागजात न वापस किया न रकम की कोई रसीद दी बल्कि कुछ दबंगों को जब डेबू खेत में हल चला रहे थे ले आकर रोकने की कोशिश की डेबू ने ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त की साहूकार खेत छोड़कर भाग गया उस समय अशिक्षित किसानों को साहूकार लूटते रहे इस अन्याय का विरोध डेबू जी ने किया वहीँ से अन्याय, अशिक्षा के विरोध में डेबू जी के संघर्ष की शुरुवात हुई। आज भी सूदखोर अनपढ़ किसान, मजदूर, छोटे दुकानदारों को अधिक ब्याज पर धन देकर लूट व शोषण कर रहे हैं। आज भी इस समस्या का अन्त नहीं हो पाया है।
डेबू जी की शादी कुन्ताबाई से हो गयी थी उनकी बेटी के जन्म-दिन के अवसर पर रीति-रिवाज के अनुसार उन्हें मदिरा तथा बकरे का मांस भोजन में अपने समाज को देना था लेकिन, उनकी माँ सखूबाई व डेबू जी को उनके पिता के बचन ने समाज में रूढ़िवाद को तोड़ने की शक्ति दी, उन्होंने अपने समाज को समझाया तथा उन्हें शाकाहारी भोजन करवाया गया उन्होंने कहा कि जन्मदिन के अवसर पर किसी जीव की हत्या करना कहाँ उचित है इस तरह उन्होंने पशुबलि, मदिरापान जैसी सदियों से चली आ रही प्रथा का अपने समाज में अन्त करने में सफलता प्राप्त की।
डेबू जी अशिक्षित थे लेकिन उन्होंने भजन मण्डली के माध्यम से गाँव-गाँव जाकर सामाजिक परिवर्तन, धार्मिक पाखण्ड के विरोध में भजन गाकर लोगों में चेतना जागृति करने का काम करने लगे उन पर महात्मा कबीर, नामदेव, चोखामेला जैसे संतो के भजन का प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने भगवान बुद्ध के बारे में भी सन्त, महात्माओं से काफी कुछ सुन रखा था उन्होंने घर त्याग करने का निश्चय कर लिया तथा अपने परिवार को 29 वर्ष की अवस्था में छोड़कर दलित, शोषित समाज के उत्थान के लिए संघर्ष में कूद पड़े| उनका मानना था मेरी पत्नी रात-दिन मेहनत कर दो जून का भोजन और वस्त्र ही तो पाती है मेरे न रहने पर वह इन्हें इनकी मेहनत से मिल जायेगा लेकिन जिस कार्य के लिए मै घर त्याग कर रहा हूँ यहाँ पर मेरे रहने से नहीं हो सकता।
अब वे अपने उद्देश्य को पूरा करने में लग गये क्योंकि भजन-मण्डली के माध्यम से गाँव-गाँव जाकर उन्हें अनुभव होने लगा कि दलित समाज समस्याओं से ग्रस्त है बेगार, छुवाछूत, भुखमरी, कुपोषण, महामारी, अशिक्षा, शराबखोरी, साहूकार द्वारा सूदखोरी से लोग पीड़ित हैं यही इनकी अवनति का मूल कारण है तथा संकल्प लिया कि मै जीवनभर चीवर पहनूंगा, कष्ट झेलूँगा लेकिन इन बुराइयों तथा रुढियों का समूल नाश करके रहूँगा।
वे गाँव में जाते जहाँ भी गन्दगी का ढेर मिलता वे लोगों से सम्पर्क कर फावड़ा मंगवा कर कार-सेवा करते तथा उन्हें गन्दगी के कारण होने वाली बीमारी के बारे में बताते हुए स्वच्छता अभियान चलाते शाम को भजन के माध्यम से उन्हें अन्धविश्वास से दूर रहने, शराब तथा अन्य नशा से मुक्त रहने, जीव हिंसा न करने, कड़ी मेहनत करने तथा अपने बच्चों को शिक्षित करने की, भविष्य सवांरने की बात बताते थे। अब जन-सेवा के प्रतीक डेबू जी सन्त गाडगे बाबा के नाम से जाने, जाने लगे। महात्मा गाँधी भी बाबा के स्वच्छता अभियान व दलितोत्थान के कार्यों से प्रभावित थे तथा उनकी प्रसंशा की जब 1935 में वर्धा में दोनों सन्त पुरुषों की मुलाकात हुई। अब बाबा के हर वर्ग में अनुयायी बढ़ने लगे तथा उनकी प्रेरणा से जन-सेवा में लगने लगे, तन, मन, धन से सहयोग करने वालों की भी अब बाबा के पास कमी नहीं थी। उन्होंने पढ़रपुर आलंदी नासिक आदि तीर्थ स्थलों पर धर्मशालाओं का निर्माण करवाया क्योंकि सवर्ण, दलितों को अपनी धर्मशाला में ठहरने नहीं देते थे न अपने कुएँ पर पानी पीने देते, कुओं का भी निर्माण करवाया।
सन्त गाडगे जी शिक्षा के महत्त्व को समझते थे उनका मानना था कि अज्ञानता, अन्धविश्वास, अशिक्षा के कारण है इसे शिक्षा से दूर किया जा सकता है विद्यालय का निर्माण करवाया, छात्रावास बनवाये, शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, उन्होंने जनता के लिए अस्पतालों तथा कुष्टरोगियों के लिए कुष्टाश्रमों का निर्माण करवाया, उन्होंने अपने स्वयं के लिए तथा अपने परिवार के लिए कुछ नहीं किया साधारण भोजन जो मिल जाता तथा पहनने के लिए चीवर के अलावा उनके पास एक मिट्टी का बर्तन था उनकी किसी भी संस्था में उनके परिवार तथा उनके नाम पर कोई भी ट्रस्ट नहीं था वे त्यागी, बलिदानी तथा दूसरों के लिए जीवन भर कष्ट झेलने वाले सन्त थे, समाज के कमजोर वर्गों, दलितों के प्रति उनमे अगाध प्रेम था उनके स्वाभिमान के लिए उन्होंने 11 लाख की धर्मशाला दलित सन्त चोखामेला के नाम पर बनवाया कुछ दिनों बाद भारत के प्रथम कानून मंत्री डा0 भीमराव अम्बेडकर को समर्पित कर दिया वहाँ अब तक दलित छात्रों का छात्रवास चल रहा है डा0 अम्बेडकर ने कहा कि वंचित समाज के लिए सन्त गाडगे मसीहा थे यह डा0 अम्बेडकर के इस कथन से प्रमाणित होती है कि सन्त गाडगे बीमार हो गये जब डा0 अम्बेडकर को पता चला तो कानून मंत्री होते हुए बाबा से मिलने उनके यहाँ पहुंचे जबकि उन्हें दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़नी थी बाबा को पता चला कि डा0 साहब मिलने आये हैं तो उठकर खड़े हुए यह कहते हुए कि आप क्यों आये आप का एक-एक मिनट महत्वपूर्ण है डा0 अम्बेडकर बोले बाबा हमारा अधिकार दो दिन का है, कल कुर्सी से हटे तो कौन पूछने वाला, आप का अधिकार अमर है।
सन्त गाडगे महराज सारे जीवन दलित, वंचित, शोषित वर्ग के उत्थान के लिए आडम्बर, पाखण्ड, अन्धविश्वास, रूढ़िवाद तथा सामाजिक कुरीतियों से लड़ते रहे उनका मानना था कि दरिद्र नारायण की सेवा, ही सच्चा धर्म है, न तीर्थ में वह है न मूर्ति में, अज्ञानता को शिक्षा से समूल नाश किया जा सकता है, समता, समानता, न्याय व बन्धुता समाज में स्थापित होनी चाहिए अलख जगाते रहे, 20 दिसम्बर 1656 को सन्त ने अपने कर्तव्यों को निर्वहन करते हुए इस संसार को छोड़ दिया, हम उनके बताये हुए मार्ग पर एक कदम चलकर बाबा सन्त गाडगे के मिशन में सहयोग दें, उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
लेखक:
राम दुलार यादव
संस्थापक
लोक शिक्षण अभियान ट्रस्ट
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