जैन धर्म के संस्थापक 24वें तीर्थांकर भगवान महाबीर स्वामी के जन्म दिन 6 अप्रैल 2020 पर विशेष:-
जैन धर्म प्राचीन धर्म है, इस धर्म के प्रथम तीर्थांकर ऋषभ देव, जिनका नाम ऋग्वेद में भी मिलता है, प्रथम संस्थापक जिन्हें आदिनाथ के नाम से जाना जाता है, लेकिन जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक भगवान महाबीर हैं जो 24वें तीर्थांकर रहे उनके बाद कोई भी तीर्थांकर नहीं हुए, इन्होने जन-जन में उपदेश के माध्यम से देश, समाज में सत्य, अहिंसा का प्रचार-प्रसार कर पाखण्ड, रूढ़िवाद में आकंठ डूबे समाज में नई चेतना पैदा की|
वैदिक काल में पशु हिंसा चरम पर थी, अश्वमेघ यज्ञ, गोमेघ यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि दी जाती थी, उस समय मांस भक्षण का प्रचलन प्रसाद रूप में था, नर बलि का उल्लेख भी वैदिक काल में था| देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह की हिंसा समाज में व्याप्त थी| रूढ़िवाद, कर्मकांड, पाखण्ड, जाति-पांत का भेदभाव समाज में पराकाष्टा पर पहुँच गया था| जनता अन्ध विश्ववास, भ्रम, अन्धकार की गहरी सुरंग में फंस जीवन यापन कर रही थी, उसके सामने अन्धकार से निकलने का कोई विकल्प नहीं दिख रहा था, न जनता के सामने कोई मार्ग दर्शक था, जो इन सामाजिक बुराईयों, धार्मिक पाखण्ड व हिंसक वातावरण से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सके| उसी काल में जैन धर्म के संस्थापक भगवान महाबीर स्वामी जिनका बचपन का नाम वर्धमान था, कश्यप गोत्र में राजा सिद्धार्थ व माता त्रिशला की गोंद में कुंडल ग्राम निकट वैशाली में उनका 599 ई0 पू0 में प्रादुर्भाव हुआ| आठ वर्ष की अवस्था में इन्हें पढ़ने, अस्त्र-शस्त्र विद्या के लिए शिल्पशाला में भेजा गया, कुशाग्र, विलक्षण, प्रतिभावान बालक वर्धमान ने अल्पकाल में धनुष चलाने, घुड़सवारी करने की कला में पारंगत हो गये| इनका बचपन राजमहल में बीता, निर्भीकता इनके रग-रग में व्याप्त थी|
जैन धर्म में विभाजन के कारण श्वेताम्बर के श्रमण इन्हें विवाहित व इनकी पत्नी का नाम यशोदा तथा कन्या प्रियदर्शिनी को मानते हैं, लेकिन दिगंबर जैन इन्हें बाल ब्रह्मचारी मानते हैं, उनका मानना है कि भगवान महाबीर शादी के बंधन में कभी नही रहे| वे चिंतन, मनन में हमेशा लीन रहते थे, उनके मन में जन-कल्याण की भावना का प्रादुर्भाव जन्म से ही था, इसलिए आप ने 30 वर्ष की अवस्था में राजमहल त्याग दिया| कठिन तपस्या में लीन भ्रमण करते हुए शरीर के चीवर के चिथड़े-चिथड़े हो गये, लेकिन इसका उन्हें एहसास ही नहीं हुआ, 12 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद 42 वर्ष की अवस्था में जुम्भिक गाँव के समीप ऋजुवालिका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नीचे कैवल्य की प्राप्ति हुई| यह पूर्ण ज्ञान की अवस्था है, कैवल्य प्राप्ति के बाद इन्हें स्वामी, केवलिन, जिन, अर्ह तथा निर्ग्रन्थ आदि नामों से विभूषित किया गया| ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान महाबीर ने 11 शिष्यों को उपदेश दिया, इनके मुख्य गणधर इंद्रभूति थे| उन्होंने अपने प्रवचनों में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्यं पर सबसे अधिक जोर दिया, इसे जैन धर्म में पञ्चमहाब्रत कहते हैं, उनके उपदेश में क्षमा, करुणा, त्याग, संयम, शील, सदाचार, प्रेम पर अधिक जोर था| महाबीर स्वामी ने त्रिरत्न का पालन का प्रवचन दिया, 1- सम्यक दर्शन अर्थात सभी को समान दृष्टि से देखना, 2- सम्यक ज्ञान, दुःख-सुख में समान रहना वास्तविक ज्ञान है,
3- सम्यक आचरण, से आशय है जैसा हम अपने लिए व्यवहार दूसरे से चाहते हैं हमें जन-जन के साथ वैसा ही आचरण करना चाहिए| प्रत्येक प्राणी के लिए हमारे मन में “जीवो और जीने दो” का भाव होना चाहिए| उनका मानना था कि इन्द्रियों और विषय वासनाओं का सुख दूसरों को दुःख पहुंचा कर पाया जाता है इसका त्याग करना चाहिए| अहिंसा, सत्य, अनेकांतवाद, स्यादवाद, सर्वजीव, समभाव का सिद्धान्त दिया| महिलाओं के साथ समान व्यवहार के प्रबल पक्षधर रहे तथा दास व दासी प्रथा को कलंक की संज्ञा दी| भगवान महाबीर ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण माना| अपरिग्रह, अस्तेय (चोरी न करना, दूसरे के धन का अपहरण न करना), सत्य मार्ग का अनुसरण, मर्यादित आचरण करना, विषयों से दूर ब्रह्मचर्यं का पालन करना, इसीलिए यह धर्म कठिन साधना का धर्म कहा जाता है|
आज भी भगवान महाबीर स्वामी का बताया मार्ग मानव जाति के अस्तित्व के लिए प्रासंगिक है, जहाँ पूरा विश्व बारूद के ढेर पर खड़ा है, हथियारों की होड़ मची है, जो धन स्वास्थ्य, शिक्षा, विश्वमानव के सर्वांगीण विकास पर खर्च होना चाहिए वह हथियार, परमाणु बम, मिसाइल बनाने पर खर्च हो रहा है, कहने को तो हम 21वीं सदी में जी रहे हैं लेकिन अपने ही हाथों विनास का सामान बना रहे हैं, हर देश बजट का अधिक से अधिक धन सुरक्षा व्यवस्था पर खर्च कर रहा है, क्योंकि हर देश में डर, भय का वातावरण बना हुआ है, कहने को हम सभ्य समाज हैं, कानून के राज्य में जी रहे हैं, वहीँ हम नफ़रत, असहिष्णुता के शिकार है| संसाधनों की लूट, प्रकृति का दोहन, शोषण की प्रवृति आज भी हमें नैतिक शिष्ट समाज बनाने में बाधा उत्पन्न कर रही है, हमें भगवान महाबीर के बताये पञ्चमहाब्रत, त्रिरत्न जीवन में उतारने से ही देश, समाज में सद्भाव, प्रेम, भाईचारा, मैत्री, सहयोग से जीवन जीने की कला की शिक्षा मिलती है जो शांति, सत्य, अहिंसा से ही सम्भव है|
भगवान महाबीर ने कठिन साधना की उन्हें जिन कहा जाता है जिसका अभिप्राय इन्द्रियों को जीतने वाला, वे सभी बंधनों से मुक्त साधना के प्रति समर्पित रहे, उन्होंने जन भाषा, प्राकृत, अर्धमगधी में उपदेश दिये, लाखों नर-नारी उनके बताये मार्ग का अनुसरण कर उनके शिष्य बने, देश, विदेश में भी उनके अनुयायी हैं, उन्होंने कर्म को दुःख, सुख का कारण माना, किसी अदृश्य सत्ता में उनका विश्वास नहीं था, उनके दर्शन को अनात्म दर्शन की संज्ञा दी जाती है, हमें मानवता के कल्याण के लिए भगवान महाबीर के बताये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, तभी समाज में क्षमा, करुणा, शांति से मानव जी सकेगा| 72 वर्ष की अवस्था में पवानगर में शरीर त्याग दिया, हमें संकल्प लेना चाहिए कि हम स्वामी जी के बताये मार्ग पर एक कदम चलने का साहस कर मानवता के कल्याण में अपना जीवन लगायें, यही उनके प्रति हमारी श्रद्धा होगी, नमन्, वन्दन|
लेखक:-
राम दुलार यादव
अध्यक्ष, लोक शिक्षण अभियान ट्रस्ट
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