प्रत्येक गांव के युवक-युवतियां अपने नेता के संरक्षण में प्रतिदिन शाम को गांव के अखाड़े पर एकत्र हो जाया करते थे और व्यायाम, मल्ल युद्ध तथा युद्ध विद्या का अभ्यास किया करते थे। उत्सवों के समय वीर युवक युवतियाँ अपने कौशल सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित किया करते थे।
अंतत: धर्मयुद्ध का दिन समीप आया। गुप्तचरों की सूचना के अनुसार तैमूर लंग अपनी विशाल सेना के साथ मेरठ की ओर कूच कर रहा था। सभी 120000 सैनिक केवल महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के युद्ध आवाहन की प्रतीक्षा कर रहे थे।
सिंह के सदृश गरजते हुये महाबली जोगराज सिंह गुर्जर ने कहा, “वीरों, भगवद गीता में जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कहा था, उसका स्मरण करो। जो मोक्ष हमारे ऋषि मुनि योग साधना करके प्राप्त करते हैं, वो हम योद्धा यहाँ इस रणभूमि पर लड़कर प्राप्त करेंगे। यदि मातृभूमि की रक्षा करते करते आप वीरगति को प्राप्त हुये, तब भी सारा संसार आपकी वंदना करेगा।
आपने मुझे अपना प्रमुख चुना है, और इसलिए मैं अंतिम श्वास तक युद्धभूमि से पीछे नहीं हटूँगा। अपनी अंतिम श्वास और रक्त के अंतिम बूंद तक मैं माँ भारती की रक्षा करूंगा। हमारे राष्ट्र को तैमूर के अत्याचारों ने लहूलुहान किया है। योद्धाओं, उठो और क्षण भर भी विलंब न करो। शत्रुओं से युद्ध करो और उन्हे हमारी मातृभूमि से बाहर खदेड़ दो”।
महाबली जोगराज सिंह गुर्जर की इस हुंकार पर रामप्यारी गुर्जर ने अपने खड्ग को चूमा, और उनके साथ समस्त महिला सैनिकों ने अपने शस्त्रों को चूमते हुये युद्ध का उदघोष किया। रणभेरी बज उठी और शंख गूंज उठे। सभी योद्धाओं ने शपथ ली की वे किसी भी स्थिति में अपने सैन्य प्रमुख की आज्ञाओं की अवहेलना नहीं करेंगे, और वे तब तक नहीं बैठेंगे जब तक तैमूर और उसकी सेना को भारत भूमि से बाहर नहीं खदेड़ देते।
युद्ध में कम से कम योद्धा हताहत हों , इसलिए महापंचायत ने छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई। रामप्यारी गुर्जर ने अपनी सेना की तीन टुकड़ियाँ बनाई। जहां एक ओर कुछ महिलाओं पर सैनिकों के लिए भोजन और शिविर की व्यवस्था करने का दायित्व था, तो वहीं कुछ महिलाओं ने युद्धभूमि में लड़ रहे योद्धाओं को आवश्यक शस्त्र और राशन का बीड़ा उठाया। इसके अलावा रामप्यारी गुर्जर ने महिलाओं की एक और टुकड़ी को शत्रु सेना के राशन पर धावा बोलने का निर्देश दिया, जिससे शत्रु के पास न केवल खाने की कमी होगी, अपितु धीरे धीरे उनका मनोबल भी टूटने लगे, उसी टुकड़ी के पास विश्राम करने को आए शत्रुओं पर धावा बोलने का भी भार था।
20000 महापंचायत योद्धाओं ने उस समय तैमूर की सेना पर हमला किया, जब वह दिल्ली से मेरठ हेतु निकलने ही वाला था, 9000 से ज़्यादा शत्रुओं को रात मे ही कुंभीपाक पहुंचा दिया गया। इससे पहले कि तैमूर की सेना एकत्रित हो पाती, सूर्योदय होते ही महापंचायत के योद्धा मानो अदृश्य हो गए।
क्रोध में विक्षिप्त सा हुआ तैमूर मेरठ की ओर निकल पड़े, परंतु यहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगी। जिस रास्ते से तैमूर मेरठ पर आक्रमण करने वाला था, वो पूरा मार्ग और उस पर स्थित सभी गाँव निर्जन पड़े थे। इससे तैमूर की सेना अधीर होने लगी, और इससे पहले वह कुछ समझ पाता, महापंचायत के योद्धाओं ने अनायास ही उनपर आक्रमण कर दिया। महापंचायत की इस वीर सेना ने शत्रुओं को संभलने का एक अवसर भी नहीं दिया। और रणनीति भी ऐसी थी कि तैमूर कुछ कर ही ना सका, दिन मे महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के लड़ाके उसकी सेना पर आक्रमण कर देते, और यदि वे रात को कुछ क्षण विश्राम करने हेतु अपने शिविर जाते, तो रामप्यारी गुर्जर और अन्य वीरांगनाएँ उनके शिविरों पर आक्रमण कर देती। रामप्यारी की सेना का आक्रमण इतना सटीक और त्वरित होता था कि वे गाजर मूली की तरह काटे जाते थे और जो बचते थे वो रात रात भर ना सोने का कारण विक्षिप्त से हो जाते थे। महिलाओं के इस आक्रमण से तैमूर की सेना के अंदर युद्ध का मानो उत्साह ही क्षीण हो गया था।
अर्धविक्षिप्त, थके हारे और घायल सेना के साथ आखिरकार हताश होकर तैमूर और उसकी सेना मेरठ से हरिद्वार की ओर निकाल पड़ी। पर यहाँ तो मानो रुद्र के गण उनकी स्वयं प्रतीक्षा कर रहे थे। महापंचायत की सेना ने उनपर पुनः आनायास ही उनपर धावा बोल दिया, और इस बार तैमूर की सेना को मैदान छोड़कर भागने पर विवश होना पड़ा। इसी युद्ध में वीर हरवीर सिंह गुलिया ने सभी को चौंकाते हुये सीधा तैमूर पर धावा बोल दिया और अपने भाले से उसकी छाती छेद दी।
तैमूर के अंगरक्षक तुरंत हरवीर पर टूट पड़े, परंतु हरवीर तब तक अपना काम कर चुके थे। जहां हरवीर उस युद्धभूमि में ही वीरगति को प्राप्त हुये, तो तैमूर उस घाव से कभी नहीं उबर पाया, और अंततः सन 1405 में उसी घाव में बढ़ते संक्रमण के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। जो तैमूर लाखों की सेना के साथ भारत विजय के उद्देश्य से यहाँ आया था, वो महज कुछ हज़ार सैनिकों के साथ किसी तरह भारत से भाग पाया। रोचक बात तो यह है कि ईरानी इतिहासकार शरीफुद्दीन अली यजीदी द्वारा रचित ‘जफरनमा’ में इस युद्ध का उल्लेख भी किया गया है।
यह युद्ध कोई आम युद्ध नहीं था, अपितु अपने सम्मान, अपने संस्कृति की रक्षा हेतु किया गया एक धर्मयुद्ध था, जिसमें जाति , धर्म सबको पीछे छोडते हुये हमारे वीर योद्धाओं ने एक क्रूर आक्रांता को उसी की शैली में सबक सिखाया। पर इसे हमारी विडम्बना ही कहेंगे, कि इस युद्ध के किसी भी नायक का गुणगान तो बहुत दूर की बात, हमारे देशवासियों को इस ऐतिहासिक युद्ध के बारे में लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होगा। रामप्यारी गुर्जर जैसी अनेकों वीर महिलाओं ने जिस तरह तैमूर को नाकों चने चबवाने पर विवश किया, वो अपने आप में असंख्य भारतीय महिलाओं हेतु किसी प्रेरणास्त्रोत से कम नहीं होगा।
ये कथा है अधर्म पर धर्म के विजय की, ये कथा है देवी दुर्गा के संस्कृति की अनेक दुर्गाओं की, ये कथा है तैमूर लँगड़े की सेना की हमारे वीर वीरांगनाओं के हाथों अप्रत्याशित पराजय की।
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