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पत्रकारिता दिवस: शुभकामनाओं का नहीं , संवेदनाओं का काल है, सोचो!

दिल्ली : यह संक्रमण काल है । संक्रमण बीमारी का । कोरोना का । संकट काल है । सब कुछ लॉकडाउन है । बंद है । बाज़ार अधखुले से है। बाज़ारों को इंतज़ार है ग्राहकों का । ऐसे में आज पत्रकारिता दिवस भी है । आज शुभकामनाएं का अवसर नहीं है ।


संवेदनाओं का है । पत्रकारिता संकट में है। अख़बार उद्योग ख़ुद को बचाने की जद्दोजहद में है। बिज़नेस ख़त्म हो रहे है। घाटे बढ़ रहे है। प्रसार कम कर दिया है । पन्ने भी घट गए हैं । संक्रमण का सबसे घातक हमला है । पत्रकारों पर । अख़बार / मीडिया में काम करने वालों पर । लॉकडाउन अभी ख़त्म नहीं हुआ है । कल क्या होगा ? कोई नहीं जानता । नौकरियाँ जाने लगीं हैं । सभी संस्थानों ने छँटनी की लिस्ट बना ली है । कई संस्थानों ने अपने एडिशन बंद कर दिए है । यह वज्रपात है । पत्रकारों पर । पत्रकारिता पर । अख़बारों का अपना संकट है । अस्तित्व बचाने का । पैसा लाएँ कहाँ से ? बग़ैर विज्ञापन अख़बार सिर्फ़ घाटे का सौदा है । वेतन बाँटेंगे भी तो कहां से । लिहाज़ा वेतन कम होने लगे । इन्क्रीमेन्ट रूक गए । इतना भर काफ़ी नहीं था तो अब लोग हटने लगे । जिनके हाथ में कलम थी अब वे बेरोज़गारी से जूझ रहे है। एक बड़ी जमात खड़ी है । अपना अस्तित्व तलाशने में । दूसरों के लिए अड़ने वाले , लड़ने वाले आज बेबस हैं। लाचार है। यह कैसा कालखंड है । यह कैसा संकटकाल है ? यहाँ हर कोई डरा हुआ है । ख़ुद से भी । आने वाले कल से भी । यह सचमुच शुभकामनाओं का समय नहीं है । कलम लड़खड़ा रही है । घरों में मायूसी बढ़ रही है । यह मृत्यु से बड़ा संकट है । मौत के तो 13 दिन बाद जीवन चलने लगता है । यहाँ जीवन रूक रहा है । थम रहा है । भविष्य भयावह है । पत्रकारों के लिए कोई सरकारी पैकेज नहीं है । राहत नहीं है । अख़बार इंडस्ट्री को लेकर कहीं कोई चिंता नज़र नहीं आ रही । सामने दिख रही है लटकती तलवार । भविष्य की मायूसी । घर में उदासी । लटकते चेहरे । बंद करिए व्हाटसप पर बधाइयों का सिलसिला । यह झूठ है । फ़रेब है । यह वक्त संघर्ष का है । साथ खड़े रहने का है । अस्तित्त्व बचाने का है ...।मृत शैय्या पर पड़ी पत्रकारिता को बचाने का है ....।


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