गाजियाबाद : आओ अपनी जिंदगी के कुछ साल पीछे के देखें तो हम समझ पाएंगे कि हम कितने बदल गए | आज से पूर्व जो सामान हम इस्तेमाल करते थे उस वस्तु के टूट फूट जाने पर फेंक देते हैं | जैसे आज हम बात शुरू करते हैं चप्पल से उस वक्त चप्पल रबड़ या प्लास्टिक की ही जायदा पहनी जाती थी | जब चप्पल का स्टेप टूट जाता था तो हम चप्पल फेंक देते थे क्योंकि शुरू में चप्पल का स्टेप अलग से नहीं आता था और वह चप्पल एक गरीब के काम आ जाती थी | फिर चप्पल का स्टेप अलग से आने लगा तो हमने चप्पल फेंकना बंद कर दिया हमने स्टेप बदल कर फिर काम लेने लगे चप्पल से जो लाभ किसी गरीब को मिल जाना था |
वह हम खुद लेने लगे इसी तरह घर में या बाहर जो भी वस्तु हम खरीदते धीरे-धीरे उनके इस्तेमाल के बाद हमने फेंकना बंद कर दिया |चाहे घी का खाली कनस्तर हो या खाली बोतल या प्लास्टिक का भी कोई सामान जो टूट-फूट होने पर बिकने लगा | जो सामान हम खाली होते ही फेंक देते थे उस हर सामान के हमें पैसे मिलने लगे | सामान को बांधने वाला गत्ता भी बिकने लगा कोई भी सामान ऐसा नहीं था जो बिकता ना हो हम धीरे-धीरे इंसान से व्यापारी बनते गए | पैसे के साथ-साथ हमारी इंसानियत पर भी खतरा बढ़ता जा रहा था पहले आपने देखा होगा सुबह 4:00 और 5:00 के बीच आठ-दस बच्चों की टीम हाथ में थैला लेकर सड़क पर सिर्फ इन्हीं चीजों की तलाश करती थी | खाली बोतल प्लास्टिक का सामान गत्ता जितनी तेज जो चलता था वह अधिक पा जाता था मगर शायद उनकी वो टीम धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है | बहुत कम बच्चों को हम देख पाते हैं क्योंकि यह सब हमारी आदत की वजह से हुआ अभी भी बीयर की बोतल हम अगर घर पीते हैं तो खाली बोतल हम फेंकते नहीं बलिक इकट्ठा कर लेते हैं | और अगर बियर बाहर पीते हैं तो हमारी मजबूरी हो जाती है हम बोतल को वहीं छोड़ दें इसी तरह हम कदम दर कदम फेंकने की तरफ नहीं बेचने की तरफ बढ़ने लगे | आज की जिंदगी और पूर्व की जिंदगी में जो फर्क नजर आता है जिंदगी की रफ्तार बढ़ी है और उसी रफ्तार से हम भी बदलते जा रहे हैं | हमें आदत होती जा रही है बेच दो बस बेच दो मुफ्त में कुछ नहीं जो चप्पल हम गरीब के लिए फेंक देते थे या छोड़ देते थे कि गरीब पहन लेगा | आज हम पुरानी तो बेच देते हैं और कभी रहम दिल हो जाए तो गरीब को नई चप्पल खरीद कर भी दे देते हैं | मगर पुरानी ना फेंक बेचना अच्छा लगता है हमारी कंपनी में जब मशीन चलती थी तो कट के बाद जो बारूदा उतरता था तो हम उस बारूदा को उठाने के पैसे देते थे | धीरे-धीरे वक्त आया क्या मैं उस बारूदा के पैसे मिलने लगे और फिर मोल भाव भी होने लगा धीरे-धीरे सभी समान जो टूट फूट जाता था उसके पैसे हमें मिलने लगे | पुराना सामान फेंकना बंद होकर बेचना शुरू कर दिया इसी तरह की जिंदगी जब से हम जीने लगे | हमारा आपसी प्यार भी समाप्त हो गया हम हर चीज को बेचने का मोल भाव करने लगे दोस्तों हमारी सोच मददगार कि नहीं व्यापारी जैसी हो गई | दोस्तों जब से यह सोच हमारी पारिवारिक जिंदगी में घुस गई तब से हम लालची हो गए हमारे अंदर अपनापन समाप्त हो गया | हम सिर्फ लालच भरी जिंदगी जीने लगे गरीब की मदद की सोच तो एक तरफ हम अपना पराया भी भूल गए यही लालच बड़े परिवार से छोटे परिवारों में बदल गई मगर हमें छोटा परिवार ही अच्छा लगने लगा | हम सिर्फ अपनी जिंदगी जीते हैं हमारे अंदर अपना पराया सब समाप्त हो और सिर्फ लालच और जब से लालच आया तो हमारे रिश्ते भी मधुर नहीं रहे | हम स्वार्थ भरा जीवन जीने लगे हम मददगार नहीं लालच वान बन गए हमें सभी रिश्तो के ऊपर अपना स्वार्थ नजर आने लगा | दोस्तों यह छोटा छोटा लालच हमारे रिश्तो को तोड़ रहा है हमारे रिश्तो की बलि चढ़ती जा रही है | तो दोस्तों पूर्व की जिंदगी अच्छी थी जिसमें हमारा आपसी प्रेम था गरीब के भी किसी काम आ कर हमें खुशी मिलती थी | मगर अब हम स्वार्थ या लालच की जिंदगी जी कर हम दुखी रहते हैं आप सी प्यार जो परिवारों में था वह भी खत्म होता जा रहा है | हमारी जिंदगी की रफ्तार नहीं बढ़ी हम घटने लगे हमारी सोच छोटी होती जा रही है दोस्तों क्या हम लौट कर आ सकते हैं | दोस्तों क्या हम लौट कर आ सकते हैं सोचे फिर सोचें यही सवाल है मेरा एक सवाल है मेरा |
सरदार मंजीत सिंह
आध्यात्मिक एवं सामाजिक विचारक
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