आज जितनी तेजी से हम तरक्की कर रहे हैं, उतनी तेजी से हम गहरी खाई में गिर रहे हैं तकनीक ने हमें तनहा कर दिया परिवार ,दोस्त ,रिश्तेदार ,पड़ोसी सब खत्म, हमारी उंगली के टच मे सब कुछ
लेकिन हो गया खतम वो टच ,जिसमें अपना पन ,पयार ,धियान ,चिंता ,शांति,,,,, समाज में सबसे अधिक दौलत, शौहरत, सममान , celebrities को मिलता है, आम लोग उन्हों किसी दूसरी दुनिया का ही समझ ते हैं, जहां गाड़ी बंगाला,सटेटस,सब कुछ उनकी एक झलक के लोग दिवाने ,लेकिन हक़ीक़त उलट सबसे ज्यादा यही लोग अवसाद गृसत असुरक्षित,।
एक सृवे के अनुसार आतमहत्या का दर दक्षिण एशिया में भारत में सबसे अधिक, हर 16 मिनट मे यहां एक आतमहत्या होती है ,,,मानसिक बीमारी को यहां बीमारी नहीं माना जाता,, यू
U K मे इसे एक सबजेक्ट की तरह पढा़या जा रहा है,, जैसे हमारा शरीर बीमार होता है वैसे ही हमारा मन भी बीमार होता है, और उसे भी इलाज की जरूरत होती है, जब यह बढ़ जाता है तो Depression कहलाता है, या मन का फरैकचर ,,,एसे समय हमें जरूरत होती है अपनों की ,जो हमें सुने ,हमारा बोझ हल्का करें हमें खुशी दें।।।।।सुशांत सिंह एक सफ़ल एकटर 7 साल के कैरियर में 10 फ़िल्में ,,,,पी के,M,S धोनी ,सौनचैरिय, छछोरे आदि,,,,सब कुछ अच्छा ,,,,,,लेकिन यहां वृचसव का गंदा खेल ,,,बड़े बैनर ,यशराज, करण जौहर, बालाजी, टी सीरीज,,,, अपने साथ contract मे बंधवा मज़दूर की तरह बांध लेना फिर न खुद काम देना और दूसरी जगह से भी निकलवाना ,,,,एक आम आदमी जब फ़िल्म देखकर निकलता है कितना खुश होता है ,खुद फ़िल्म से जोड़ लेता है ,फ़िल्म वालों को फ़ोलो करता है ,कपड़े भी वैसे ही पहनता है बाल भी वैसे ही बनाता है ,दक्षिण भारत में तो लोग इनके मंदिर बनाके पूजा करते हैं.,,,, सुशांत सिंह जैसे होनहार एकटर को वृचसव के मकड़जाल वालों ने मजबूर कर दिया आतमहत्या करने पर ,,,,छोटे छोटे शहरों से जो लोग मुंबई नगरी मे आकर अपने दम पर अपनी महनत से बिना किसी सहारे के जो नाम कमाते हैं ,,उनको सलाम, ,ऐसे कठिन समय में हमें ईश्वर की ओर मुड़ना चाहिए ,वो कहता है मुझे पुकार ,अंधेरे में पुकार, तनहाई मे पुकार दुख में पुकार ,मैं तेरी सांस की नली से भी ज़्यादा क़रीब हु,,,,हमें ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए ,जिस ने यहां तक पुहंचाया वो आगे भी पुहंचायगा ,,,,सूरज निकलना बंद नहीं हो गया, चांद उगना रूक नहीं गया ,,हवा चलनी बंद नहीं हो गई ,,,,,दूसरों के पैरों पर गिरने से अच्छा है अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करनी चाहिए ,,,,,दिन को तै ढलना ही होता है ,,तब सूरज इतने नीचे आ जाता है लगता है हाथ बढ़ा के पकड़ लेगें।।।।
ज़माने की रंगरलियों पे न जा ए दिल
यह ख़िज़ा है जो ब,अंदाज़ बहार आई है।
निगार फ़ारुक़ी।
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