भारत की प्राचीन काल से चली आ रही विश्वविख्यात संस्कृति के आधारभूत तीन मूल आधार हैं- ऋग्वेदादि चारों वेद, वाल्मीकि रामायण और महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास रचित महाभारत। इनमें वेदों को तो देवकाव्य या अपौरुषेय काव्य भी कहा जाता है। स्वयं वेद में कहा गया है, सनातन देवकाव्य (ईश्वरीय काव्य) को देखो जो न कभी जीर्ण (अर्थात् पुराना) होता है और न नष्ट होता है- ‘‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति”। मानव सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा नामक चार अमैथुनी सृष्टि के आदि ऋषियों के अत्यन्त पवित्र अन्तःकरणों में शब्द, अर्थ, सम्बन्ध सहित ऋग्-यजुः-साम-अथर्व नामक चारों वेदों का ज्ञान सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकार ईश्वर के द्वारा प्रदान किया गया जिनसे सर्वप्रथम ब्रह्मा नामक देवर्षि ने वेदों को प्राप्त किया। बाद में उन्होंने ही अपनी दिव्य योग्यता से लिपि का आविष्कार कर, तद्द्वारा अपने पुत्रादिकों एवं अन्य अवरकालिक ऋषियों को वेद पढ़ाये और शनैः शनैः वेदज्ञान समस्त भूमण्डल में फैलता गया। यह बात व्याकरण, निरुक्तादि वेदांगों, ऐतरेय-शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों में वर्णित है। ऋग्वेदादि चारों वेदों को कण्ठस्थ करने के कारण ब्रह्मा को चतुर्र्मुख उपाधि प्राप्त है।
जैसे वेदों को अपौरुषेय देवकाव्य कहा जाता है, उसी प्रकार लोकभाषा संस्कृत में सर्वप्रथम काव्य की रचना करने वाले महर्षि वाल्मीकि हुए, जिन्होंने रामकथा पर आधारित रामायण नामक महाकाव्य का प्रणयन किया। इसलिए उन्हें आदिकवि और रामायण को संस्कृत साहित्य में आदि महाकाव्य कहा जाता है।
वैदिक वांग्मय के पश्चात अलग अलग युगों में अनेक महर्षि हुए जिन्होंने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद नामक चार उपवेदों, शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, कल्प, छन्द, ज्योतिष नामक छः वेदांग शास्त्रों, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व-मीमांसा (वेदान्त) और उत्तर मीमांसा नामक छः वेदोपांग नामक दर्शनशास्त्रों की रचना की। इसी प्रकार त्रेतायुग और द्वापर युग की प्रमुख ऐतिहासक घटनाओं पर आधारित क्रमशः महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण नामक महाकाव्य और महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास रचित महाभारत नामक महाकाव्य संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में अति प्रसिद्ध हैं। इस लेख में इन दोनों महाकाव्यों की कुछ समानताओं और विशेषताओं का दिग्देर्शन किया जा रहा है, जो इस प्रकार है।
पहले वाल्मीकि रामायण की चर्चा करते हैं। वाल्मीकि रामायण के विषय मे ज्ञातव्य है कि उसको चतुर्विंशतिसाहस्त्री संहिता भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि यह महाकाव्य चैबीस हजार अनुष्टुप छन्द के श्लोकों में पूर्ण हुआ है। इसके प्रत्येक हजार का पहला श्लोक गायत्री मन्त्र के एक एक अक्षर से आरम्भ होता है। जैसे कि गायत्री मन्त्र जो तत् शब्द से आरम्भ होकर 24वें अक्षर यात् में समाप्त होता है (महाव्याहृतियों भूर्भुवः स्वः को छोड़कर) उसी प्रकार वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड का आरम्भ भी ‘त’ अक्षर से होता है और अन्तिम युद्धकाण्ड या उत्तरकाण्ड के अन्तिम चैबीस हजारहवें श्लोक के प्रथम अक्षर या से होता है या नहीं, इसकी पुष्टि कुल श्लोकों की गणना के आधार पर की जा सकती है। युद्धकाण्ड पर ही रामायण को पूर्ण माना जाता है या उत्तरकाण्ड की समाप्ति पर, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। इसलिए तदनुसार गणना भी वैकल्पिक होगी। यों युद्धकाण्ड की पुष्पिका (जो प्रत्येक काण्ड के अन्त में समान रूप से पढ़ी गई है) इस प्रकार हैः-
‘‘इत्यार्षे श्रीमद् रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये चतुर्विंशतिसाहस्त्रयां युद्धकाण्डे सर्वजनपरिवृतस्य राजाधिराजस्य श्रीमद् रामचन्द्रस्य पट्टाभिषेकभद्राण्यं नाम त्रिंशदधिकशततमः सर्गः।130। ---वर्तमानकथाप्रसंगः समाप्तः।।” इस प्रकार युद्धकाण्ड के अन्त में रामायण की मुख्य कथा समाप्त होने के कारण, तथा उत्तर काण्ड में पुराणों के समान अनेक उपाख्यानों का समावेश होने के कारण उसे कतिपय विद्वान प्रक्षिप्त मानते हैं, कतिपय नहीं मानते।
वाल्मीकि रामायण में रामकथा का आरम्भ महर्षि वाल्मीकि द्वारा मुनिश्रेष्ठ उत्तम विद्वान् नारदमुनि से इस प्रकार प्रश्न पूछने पर होता है, कि हे मुनि जी! आप बतलावें कि वर्तमान समय में सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा, सत्यवादी, सदाचारवान्, आत्मवान्, शूरवीर, दृढप्रतिज्ञ, विद्वान्, सब जनों का हितैषी कौन है? इस पर नारदमुनि उत्तर देते हैं कि हे मुने! ये बहुत सारे दुर्लभ गुणों वाले व्यक्ति के बारे में आपने पूछा है। सो, मैं बतलाता हूं। वे हैं इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए सर्वलोक प्रसिद्ध श्री रामचन्द्र। जो संयमी, सदाचारवान्, बलवान्, धैर्यवान्, बुद्धिमान्, नीतिमान्, ईर्ष्याद्वेषरहित, तेजस्वी, जितेन्द्रिय, संग्राम में शत्रु को विनष्ट करने वालेएवं यशस्वी हैं।
‘‘तपः स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्। नारदं परिप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिनिपुंगवम्।।
को न्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्। धर्मश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः।।
चारित्रेण को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः। विद्वान् कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः।।
आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयकः। कस्य बिभ्रति देवाश्च ताजरोषस्य संयुगे।।
बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः। मुने! वक्ष्याम्यहं बुदध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः।।
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः। नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान् वशी।।
बुद्धिमान् नीतिमान् वाग्मी श्रीमान् शत्रुनिवर्हणः।।”
सम्पूर्ण रामायण में रस छन्द अलंकारादि काव्यगुण होते हुए, श्री राम के ये गुण पदे पदे वाल्मीकि महाकवि के द्वारा वर्णित हुए हैं जिसके कारण रामायण महाकाव्यों में सर्वोत्तम महाकाव्य के रूप में लोक प्रसिद्ध हुआ है। अतएव कवि ने उसकी प्रशस्ति में स्वयं लिखा है- यह काव्य वेदों के समान पवित्र, पापनाशक, आयुर्वर्धक एवं पुण्यप्रद है। इसको पढ़ने वाला सब पापों से मुक्त होगा। उसकी आयु बढ़ेगी और वह जन्मान्तर में सपुत्रपौत्र और सेवकों सहित सुखी रहेगा। ब्राह्मण इसको पढ़ेगा तो उत्तम विद्वान् बनेगा, क्षत्रिय पढ़ेगा तो भूपति राजा बनेगा, वैश्य पढ़ेगा तो उत्तम धनवान् बनेगा और शूद्र पढ़ेगा तो वह भी महान् बनेगा। जब तक पृथ्वीतल में पर्वत और सरितायें रहेंगी तब तक रामायण की कथा का संसार में प्रचार होता रहेगा।
इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्चसंमितम्। यः पठेद् रामचरितं सर्वणपैप्रमुच्यते।।**
एतदाख्यानमायुष्यं पठन् रामायणं नरः सपुत्रपौत्रः सगणः प्रेत्य स्वर्गे महीयते।।
पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात्। स्यात् क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात्।।
वणिग्जनः पुण्यफलत्वमीयात् जनश्च शूद्रोऽपि महत्वमीयात्।। (बा0रा0, 1-1-98, 99, 100)
लगभग सात काण्डों, साढ़े छः सौ सर्गों, अनेक अध्यायों और हजारों श्लोकों में विभक्त है रामायण जिसमें परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के लिए सभी हितकर नियमों और सुशासन के साथ साथ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष नामक चारों पुरुषार्थों का वर्णन है। कर्तव्य कर्मों की प्रेरणा और त्याज्य कर्मों का निषेध एवं देशकालगत प्रकृति का सुन्दर मनोहारी चित्रण रामायण काव्य की विशेषता है। इसके द्वारा प्राचीन भारतीय संस्कृति, कला, धर्म और विज्ञान का सुन्दर परिचय प्राप्त होता है।
ठीक इसी प्रकार, महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा रचित महाभारत नामक महाकाव्य द्वारा हमें तात्कालिक भारतीय संस्कृति का परिज्ञान होता है। जो प्रायः वैदिक तथा रामायण कालिक संस्कृति से मिलती-जुलती होते हुए भी अनेक अंशों में उससे भिन्नता लिए हुई दिखाई देती है।
जिस प्रकार वाल्मीकि रामायण में चैबीस हजार श्लोक होने से उसे चतुर्विंशतिसाहस्री संहिता कहा जाता है, उसी प्रकार महाभारत में एक लाख श्लोक होने से महाभारत को शतसाहस्री संहिता कहा गया है। वाल्मीकि रामायण जहां काण्ड, सर्ग, अध्याय और अनुष्टुप छन्द के श्लोकों में निबद्ध है, वहां महाभारत पर्वों, अध्यायों और अनुष्टुप श्लोकों में विभक्त है। विशाल ग्रन्थ महाभारत में अठारह पर्व हैं, जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, आश्वमेधिक, आश्रमवासिक, मौसल, महाप्रस्थान, स्वर्गारोहण। इन मुख्य 18 पर्वों में प्रत्येक के अन्तर्गत छोटे छोटे पर्व भी हैं जो भिन्न भिन्न नामों से उपाख्यान पर्व कहलाते हैं। इन्हीं में से एक वनपर्वान्तर्गत 273वें अध्याय से 291वें अध्याय पर्यन्त 19 अध्यायों का रामोपाख्यान पर्व भी है जिसमें रामायण में वर्णित रामकथा का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। सुप्रसिद्ध भगवद्गीता भी महाभारत के भीष्मपर्व का ही एक अंश है।
महाभारत का आरम्भिक नाम जय था। तदनन्तर उपाख्यानों से रहित केवल चैबीस हजार श्लोकों के ग्रन्थ का नाम भारत हुआ। और जब यह एक लाख श्लोकों का ग्रन्थ बना तब उसका नाम महाभारत कहा जाने लगा। इस विशाल ग्रन्थ को महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास ने नित्य प्रातः उठकर तीन वर्षों में पूर्ण किया। यह वर्णन महाभारत के आदि पर्व में दिया गया है। तद्यथा,
नारायणं मनस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो राहुणा चन्द्रमा यथा। जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा।।
चतुर्विंशतिसाहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम्। उपाख्यानैर्विना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः।।
इदं शतसहस्रं हि श्लोकानां पुण्यकर्मणाम्। सत्यवत्यात्मजेनेह व्याख्यातममितौजसा।। महाभारत आदि पर्व।।
वाल्मीकि रामायण की ही भांति महाभारत को भी वेदों के समान अत्युत्तम महाकाव्य माना गया है। इसको पढ़ने सुनने वालों का सब प्रकार से कल्याण और उन्नति होती है। यह धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र का पुण्य ग्रन्थ है। चार पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में जो महाभारत में कहा गया है, वही अन्यत्र भी है। और जो महाभारत में नहीं कहा गया है, वह अन्यत्र भी नहीं है।
इदं हि वेदैः संमितं पवित्रमपि चोत्तमम्। श्राव्याणामुत्तमं चेदं पुराणमृषिसंस्तुतम्।।
इतिहासमिमं श्रुत्वा पुरुषोऽपि सुदारुणः। मुच्यते सर्वपापेभ्यो राहुणा चन्द्रमा यथा।।
धर्मशास्त्रमिदं पुण्यमर्थशास्त्रमिदं परम्। मोक्षशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना।।
धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्।।
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 62, श्लोक 14, 16, 19, 20, 23, 52, 53)
इस प्रकार ऋषिकृत होने से रामायण और महाभारत दोनों को आर्ष महाकाव्य कहा जाता है जिनकी अनेक शिक्षायें श्रेष्ठ, धर्मानुसार होने से प्रामाणिक और पालन करने योग्य मानी जाती हैं। वे सब प्रकार से मानवों के लिए सुख और कल्याणप्रद हुआ करती हैं। भारतीय संस्कृति में इसीलिए सरहस्य सांगोपांग वेदों, वाल्मीकि रामायण और महाभारत को सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों के रूप में माना जाता है और सदैव जिज्ञासु धार्मिक जनता इन्हें आदर और श्रद्धा के साथ पढ़ा करती है। इति शुभमस्तु।
(**पादटिप्पणी **यह श्लोक गवर्नमेंट संस्कृत कालेज, बनारस के प्रिंसीपल ग्रिफिथ (उन्नसवीं शती के उत्तरार्ध) को इतना प्रिय लगा कि उन्होंने इसको कालेज भवन के सामने एक शिलालेख में लिखवा दिया था। अब वह सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में उसी स्थान पर लगा है। -लेखक)
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-प्रस्तुतकर्ता मनमोहन कुमार आर्य
देहरादून।
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