इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग उन दिनों अनगिनत सपनों और आशाओं का केंद्र बिंदु हुआ करता था, हिंदी साहित्य के तमाम मूर्धन्य साहित्यकारोें का जुडाव रहा है हिंदी विभाग से तो उनके क़िस्से कहानियों से विभाग का कोना कोना गुंजायमान रहता था, किशोरावस्था के उन दिनों में 'गुनाहों का देवता' उपन्यास पढ़ के सुधा और चंदर के प्रेम की गहराई में डूबकर नेत्र रो पड़ते थे, महीयषी महादेवी वर्मा की कवितायें पढ़कर नारी मन को समझने के प्रयास हुआ करते थे, इलाहाबाद की सड़कों पर महाप्राण निराला की बातें हुआ करती थीं, कम्पनी गार्डेन के राजकीय पुस्तकालय के बाहर वाले लॉन में न जाने कितनी प्रेम कहानियॉं प्रारम्भ होते ही समाप्त हो जाती थीं, सिविल लाइंस के कॉफी हाउस में बड़ी मुश्किलों से जेब खर्च बचाकर जुटाये हुए पैसों से बड़े से कॉंच के गिलास में कॉफी पीते हुए हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला वार्तालाप का प्रिय विषय हुआ करती थी ।
सीनेट हॉल के बाहर बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर सोहनलाल द्विवेदी के साथ साथ फ़ैज़ और फ़राज़ और फ़िराक़ गोरखपुरी के अशआर बड़े ख़राब उच्चारण के साथ सुनाने वाले युवा साथी ख़ूब हंसाया करते थे !
चूँकि मेरा नाम इमरान था और मैंने परास्नातक करने के लिये हिंदी साहित्य को चुना था तो पूरी कक्षा मेरे चयन पर अचंभित रहा करती थी किंतु मैं उन्हें कहा करता था कि भाषायें जाति धर्म के बंधन से मुक्त हुआ करती हैं !
आज हिंदी दिवस है और ऑंखों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के कई सारे मित्रों के चित्र तैर रहे हैं !
हिंदी दिवस की पुन: बधाईयॉं
*~इमरान प्रतापगढ़ी*
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