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न्यायालय की अवमानना के एक मामले में केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने मीडिया में किया ब्यान जारी

दिल्ली : केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण की प्रधान पीठ ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में प्रतिनियुक्त उत्तराखंड कैडर के एक आईएफएस अधिकारी श्री संजीव चतुर्वेदी, जिन्होंने एसीआर दर्ज करने के संबंध में अलग-अलग आवेदन दायर किए थे, के मामले में बहस के दौरान अधिवक्ता श्री महमूद पराचा के व्यवहार के बारे में स्वतः संज्ञान लिया। इसके बाद, आवेदक को उसके मूल कैडर में वापस भेज दिया गया। आवेदक द्वारा अधिवक्ता श्री महमूद पराचा की मदद ली गयी और उन्होंने 08.02.2019 को बताया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एम्स द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) को खारिज कर 25,000 रूपए का जुर्माना लगाया है। उन्हें यह भी सूचित किया गया कि माननीय उत्तराखंड उच्च न्यायालय एवं माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्न केवल स्थानांतरण के एक आवेदन पर सुनवाई करने के दौरान प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम, 1985 की धारा 25 के तहत कार्यवाही को स्थगित करने की अध्यक्ष की शक्ति के बारे में था और माननीय न्यायालयों द्वारा न्यायिक निर्णय दिये जाने के साथ ही यह मुद्दा अब खत्म हो गया है। हालांकि दलील को आगे बढ़ाने के लिए किया गया बार – बार अनुरोध उन्हें नहीं भाया। उन्होंने दूसरे पक्ष के वकील को यह कहते हुए अपमानित करना शुरू कर दिया कि उन्हें यह बताने का कोई अधिकार नहीं है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के अनुसार इस न्यायाधिकरण के समक्ष बहस कैसे की जाये। न्यायाधिकरण में एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा करते हुए वो अपने इशारों एवं नाटकीयता के जरिए अध्यक्ष के साथ – साथ प्रतिवादियों पर धौंस जमा रहे थे। अपने उकसावे का अपेक्षित परिणाम न निकलता देख उन्होंने आगे बढ़कर अध्यक्ष पर व्यक्तिगत आक्षेप करना शुरू कर दिया। अधिनियम की धारा 25, जिसमें पीटी की सुनवाई सिर्फ अध्यक्ष द्वारा किये जाने का प्रावधान है, के बारे में अवगत कराये जाने के बावजूद मुख्य कार्यवाही से भटकते हुए उन्होंने उकसाना जारी रखा। और कोई विकल्प बाकी न बचने पर, उस तारीख पर एक विस्तृत आदेश पारित किया गया और अवमानना का एक कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। प्रस्तावित अवमानना की कार्यवाही के संदर्भ में, इस मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायधीश के समक्ष भारत के संविधान एवं न्यायालय की अवमानना अधिनियम के उचित प्रावधानों के तहत आवश्यक कदम उठाने के लिए रखा गया। पीटी को आवेदक को वापस करने का निर्देश दिया गया ताकि वह प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम 1985 की धारा 25 के अलावा अन्य किसी भी प्रावधान के तहत अपना न्यायिक उपचार प्राप्त कर सके। इस तथ्य का भी जिक्र किया गया कि यहां आवश्यकता के सिद्धांत को लागू नहीं किया जा सकता। दिनांक 30.05.2019 को दिये गये एक विस्तृत फैसले में, माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने टी. सुधाकर प्रसाद बनाम आंध्र प्रदेश सरकार वाद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले  [2001 (1) एससीसी 516] तथा इस विषय पर अन्य निर्णयों का संदर्भ दिया और यह माना कि सिर्फ न्यायाधिकरण के पास इस अवमानना ​​मामले को सुनने और तय करने का अधिकार क्षेत्र है। हमारे संज्ञान में यह बात लायी गयी है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिवादी द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका [एसएलपी (सीआरएल) संख्या.7850/2019] को खारिज करते हुए माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश की पुष्टि की है। और तदनुसार, इस न्यायाधिकरण द्वारा आपराधिक अवमानना याचिका संख्या 290/2019 शुरू की गयी और न्यायालय की अवमानना (कैट) नियमावली, 1992 के प्रावधानों के अनुरूप प्रतिवादी के खिलाफ उसके द्वारा पीटी संख्या 286, 287 एवं 288/2017 के याचिकाकर्ता के अधिवक्ता की हैसियत से की गयी टिप्पणियों एवं वक्तव्यों के आधार पर दिनांक 19. 07. 2019 को मसौदा आरोपों को तय किया गया। पतिवादी ने प्रतिवादी ने तीन प्रार्थनाओं के साथ एमए संख्या .2471 / 2019 दायर किया। ये प्रार्थनाएं (i) पीटी. संख्या .288 / 2017 में दायर किए गए कुछ एमए को  तय करने; (ii) यह तय करने के लिए कि माननीय अध्यक्ष के पास अवमानना ​​मामले की सुनवाई करने का अधिकार क्षेत्र है या नहीं; और (iii) 19.07.2019 के मसौदा आरोपों के संबंध में आदेश पारित करने से संबंधित थीं। दिनांक 02.08.2019 को इन एमए का निस्तारण कर दिया गया। दिनांक 11.12.2019 को, अनुरोध किये जाने पर, विद्वान अटॉर्नी जनरल ने श्री विक्रमजीत बनर्जी, विद्वान अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल 2, की प्रतिनियुक्ति की। दोनों पक्षों को सुनने के बाद, न्यायाधिकरण ने यह विचार व्यक्त किया कि यह मामला न्यायालय की अवमानना (कैट) नियमावली, 1992 के नियम 13 (बी) के तहत आता है। चूंकि हम इस बात से संतुष्ट थे कि एक प्रथम दृष्टया मामला बनता है, इसलिए प्रपत्र III के तहत आरोप तय किया गया। इस मामले को 10.02.2020 को सूचीबद्ध किया गया और प्रतिवादी ने खुद को निर्दोष बतया। श्री विक्रमजीत बनर्जी, विद्वान सॉलिसिटर जनरल, ने कहा कि न्यायाधिकरण के अधिकार को ही चुनौती देने वाले या अध्यक्ष को बदनाम करने का प्रयास करने वाला इस किस्म का व्यवहार, जैसाकि रिकॉर्ड से स्पष्ट है, साफ़ तौर पर आपराधिक अवमानना ​​की श्रेणी में आता है जिसका किसी भी न्यायालय द्वारा समर्थन नहीं किया जा सकता है। प्रतिवादी ने कहा कि तर्क केवल रिकॉर्ड के आधार पर दिये गये थे और उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा जोकि न्यायालय की अवमानना की श्रेणी में आता हो। उन्होंने आगे कहा कि अध्यक्ष के खिलाफ उत्तराखंड उच्च न्यायालय के एक फैसले के बारे में टिप्पणियों के लिए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के समक्ष एक अवमानना ​​मामला दायर किया गया था। उन्होंने उक्त अवमानना ​​मामले के खिलाफ माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) का भी हवाला दिया। प्रतिवादी द्वारा खेद व्यक्त किये जाने की स्थिति में इस मामले को शांत किये जा सकने के विद्वान अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के सुझाव के जवाब में प्रतिवादी ने कहा कि न्यायाधिकरण में और वहां की कार्यवाही के दौरान उन्होंने जो कुछ भी कहा, वो उस पर कायम रहेंगे और खेद व्यक्त करने का कोई सवाल नहीं है। रिकॉर्ड से यह पता चलता है कि उन्होंने सारी हदें पार कर दीं और हर संभव तरीके से न्यायाधिकरण, विशेष रूप से अध्यक्ष, पर धौंस ज़माने का प्रयास किया। उन्हें यह सूचित किया गया कि उनके इस किस्म के रवैये से उनके खिलाफ अवमानना की ​​कार्यवाही शुरू हो सकती है। जहां पक्षकार थोड़े भावुक होते हैं, वहां भी वकीलों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उन्हें हतोत्साहित करें और न्यायालय या न्यायाधिकरण के समक्ष उतना ही निवेदन करें जितना प्रासंगिक हो। यह गौर करना दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रतिवादी द्वारा किया गया हमला उसके मुवक्किल की तुलना में अधिक गंभीर और आक्रामक था। इन टिप्पणियों को बार – बार दोहराये जाने के बावजूद कि ये पीटी सबसे पुराने हैं और उन्हें कुछ ही मिनटों में निपटाया जा सकता है, उन पर कोई असर नहीं हुआ। दूसरी ओर, माननीय उत्तराखंड उच्च न्यायालय और माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अध्यक्ष को समझाने के लिए पारित किये गये आदेशों का बार-बार उल्लेख किया गया मानो उन्होंने कोई गंभीर गलती की हो और यह फटकार श्रेष्ठ न्यायालयों से आई हैं। यह मामला उस समय चरम पर पहुंचा, जब उन्होंने खुली अदालत में यह कहा कि कार्यवाही चैंबर में सुनी जाए क्योंकि उन्हें अध्यक्ष के बारे में कुछ कहना है। यह न्यायालय में उपस्थित लोगों को बताने का एक स्पष्ट इशारा था कि अध्यक्ष के खिलाफ कुछ गड़बड़ या गंभीर है। जब उनसे यह कहा गया कि उन्हें जो कुछ भी कहना है अदालत में कहें, तो वे इधर – उधर करते रहे और कुछ भी नहीं कहा। अदालत में जो कुछ भी घटित हुआ है, चाहे पीटी के मामले में या उसके बाद, वो एक अनायास परिघटना नहीं है, जैसा कि आवेदक और उनके वकील, इस मामले में प्रतिवादी, द्वारा दर्शाया जा रहा है। खुद इस मामले में, उन्होंने लगभग 400 पन्नों में आवेदन, जवाबी हलफनामे एवं दस्तावेज दाखिल किये हैं। न्यायालय में जो कुछ भी हुआ है, न केवल उसे उचित ठहराने के लिए हर संभव प्रयास किया गया, बल्कि यह भी दिखाया गया कि आवेदक ने अपने करियर में क्या कुछ हासिल किया है और उसने कैसे विभिन्न अधिकारियों का सामना किया है। इनमें मैग्सेसे पुरस्कार के प्रशस्ति -पत्र, उनके निलंबन के तथ्य, दंड की प्रमुख कार्यवाहियां, हरियाणा कैडर में रहने के दौरान 5 वर्षों के भीतर 12 मौकों पर उनका स्थानांतरण, उनके उत्तराखंड कैडर में परिवर्तन, आरोपों को निरस्त करना आदि शामिल हैं। यहां तक ​​कि पीटी और इस अवमानना मामले में जो आदेश पारित किए गए थे, उन्हें सोशल मीडिया में पोस्ट किया गया और वहां प्राप्त प्रतिक्रियाओं को इस मामले में प्रतिवादी के जवाब का हिस्सा बनाया गया। उन्होंने और उनके मुवक्किल ने हर स्तर पर और हरसंभव तरीकों से इस न्यायाधिकरण के साथ छल किया है। अवमानना ​​नोटिस जारी होने के तुरंत बाद, उत्तराखंड उच्च न्यायालय में अध्यक्ष के खिलाफ एक अवमानना ​​मामला दायर किया गया। इस याचिका को सुनने वाले विद्वान एकल न्यायधीश ने नोटिस जारी किया। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसपर रोक लगा दी। सैकड़ों पृष्ठों में चलने वाले जवाबी हलफनामों और समय-समय पर दायर आवेदनों के सुर एवं आशय केवल यही दर्शाएंगे कि प्रतिवादी के कथन आकस्मिक या अनजाने में नहीं दिये गये थे। दूसरी ओर, इसके लिए पहले से की गयी तैयारी प्रतीत होती है। यह केवल यही दर्शाता है कि वे किसी प्राधिकरण या न्यायालय को निशाना बनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, भले ही उन्हें वहां से राहत मिली हो। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि न्यायालय या प्राधिकरण उनकी पसंद का है या नहीं। यह आखिरी चीज होगी, जिसे कोई अदालत अपने साथ होने देना चाहेगी। यदि ऐसा होता है, तो न्यायालय अपनी सभी विशेषताओं को वंचित हो जायेगी और इस तरह अपना अस्तित्व भले नहीं खोये, लेकिन अपनी प्रासंगिकता जरुर खो देगी। ये घटनायें न्यायालय के ठीक सामने हुई हैं और वे अधिनियम की धारा 14 के तहत न्यायालय की आपराधिक अवमानना ​​की श्रेणी में आती हैं। इस अधिनियम की धारा 14 को लागू करने का उद्देश्य ही इस किस्म की स्थितियों से निपटना है। प्रतिवादी ने भले ही मुकदमा चलाने के लिए एक आवेदन दाखिल किया है, इस किस्म की चीजो को देखते हुए ऐसा करना संभव नहीं है। लीला डेविड के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस किस्म के मामले का न्यायिक परीक्षण करने का तरीका बताया गया था। माननीय सर्वोच्च न्यायालय में अनैतिक व्यवहार करने वाले अधिवक्ताओं और पक्षकारों को  मुक़दमा चलाये बिना कारावास की सजा दी गई। इस खण्डपीठ के एक विद्वान न्यायधीश इससे सहमत नहीं थे। इस मामले की सुनवाई एक अन्य खंडपीठ ने की। इस दलील से निपटते हुए कि मुकदमा या जांच वहां चलाने की जरुरत है, जहां अधिनियम की धारा 14 को भले ही लागू किया जाये, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के तहत, जैसाकि वकील अर्थात् प्रतिवादी का कहना है, और इस लिहाज से, न्यायाधिकरण एक आसान निशाना बन गया। कानून के क्षेत्र में कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ऐसी प्रवृत्तियां सामने आ रही हैं। एक अधिकारी को अपनी दक्षता या ईमानदारी के लिए पहचाने जाने में दशकों की समर्पित सेवा लग सकती है। इसी तरह, एक मेहनती वकील के लिए, मान्यता या प्रसिद्धि पाने में काफी समय लगेगा। दुर्भाग्यवश, कुछ लोगों द्वारा बिना इस बात का अहसास किये शॉर्टकट अपनाया जाता है कि जो शॉर्टकट को पसंद करता है,  उसका कद छोटा (शार्ट) होने के लिए बाध्य होता है। कभी-कभी किसी घटना में देरी हो सकती है, लेकिन वह किसी न किसी दिन होने के लिए बाध्य है। इसका एकमात्र दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा यह है कि इस बीच संस्थानों को भारी नुकसान पहुंचाया जाता है। प्रतिवादी के अनियंत्रित एवं अपमानजनक व्यवहार का कोई औचित्य नहीं ठहराया जा सकता। अपने जवाबी हलफनामे में या जिरह के दौरान, उन्होंने इस बात से इनकार नहीं किया जो उनके बारे में जो कहा गया है। हम उनके खिलाफ लगाए गए आरोप के संदर्भ में अदालत की अवमानना ​​अधिनियम, 1971 की धारा 14 के तहत अदालत की अवमानना ​​का दोषी मानते हैं। अवमानना ​​के कृत्यों के साबित होने के अनुपात में प्रतिवादी के खिलाफ सजा सुनाने के लिए हमारे पास हर तरह का औचित्य होता। हालांकि, इसे पहली घटना के रूप में मानकर हमने उन्हें इस आशय की कड़ी चेतावनी देकर छोड़ दिया कि यदि वो भविष्य में इस तरह के कृत्य को इस न्यायाधिकरण में दोहराते है, तो उसे इस मामले में न्यायालय की अवमानना ​​का दोषी पाया जाएगा। और इसे कार्यवाही के  के कारक के रूप में दर्ज किया जायेगा।            


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