दिल्ली : हिन्दुस्तान के मुसलमान जिन हालात से गुज़र रहे हैं वे सबको मालूम हैं। फासीवाद ने इनको अपने अधीन करने और ग़ुलाम बना लेने के सारे हथकंडों पर अमल करना शुरू कर दिया है। इनकी तहज़ीब और सभ्यता, इनके पर्सनल लॉ, इनके तालीमी इदारों में न सिर्फ़ दख़ल-अन्दाज़ी की जा रही है बल्कि उनको बेअसर करने की हर सम्भव कोशिश की जा रही है। शहरों और रेलवे स्टेशनों के नाम बदले जा रहे हैं, ज़बान के साथ पक्षपात वाला रवैया तो आज़ादी के बाद से ही शुरू हो गया था। अब इसमें और भी ज़्यादा सख़्ती आ गई है। *मानो मुसलमानों पर ज़िन्दगी का दायरा तंग किया जा रहा है। मगर परेशानी इस बात की है कि हिन्दुस्तानी मुसलमान भी नींद से बेदार होने को तैयार नहीं हैं।* इन्हें अपनी तहज़ीब, ज़बान और बुज़ुर्गों के कारनामों पर फ़ख़्र है। इनमें से किसी को अपने सय्यद होने पर फ़ख्र है, किसी को फ़ख़्र है कि उसके बाप-दादा, काबुल और ईरान से आए थे, कोई मुग़ल सल्तनत में दरबान होने पर फ़ख़्र करता है। कुछ अक़ीदतमन्द अपने बुज़ुर्गों का जश्न भी मनाते हैं, कहीं उर्स और क़व्वालियाँ होती हैं, कहीं सेमिनार और सिम्पोज़ियम को ही काफ़ी समझ लिया जाता है। कहीं अख़बारात व रसायल में स्पेशल एडिशन्स छपते हैं और कहीं शानदार डिनर का एहतिमाम करके सुकून व इत्मीनान हासिल कर लिया जाता है। *लेकिन बुज़ुर्गों के नक़्शे-क़दम पर चलते हुए उनके अक़ीदतमन्दों को डर लगता है।* उन्हीं बुज़ुर्गों में एक नाम सर सय्यद अहमद ख़ाँ साहिब (रह०) का भी है।
*आज हम सर सय्यद (रह) का दो सौ तीनवाँ जन्म-दिन मना रहे हैं। 17 अक्तूबर 1817 ई० को सर सय्यद (रह) ने आँखें खोलीं थीं। उस वक़्त किसे मालूम था कि ये बच्चा आगे चलकर तारीख़ लिखेगा। गाँधी जी कहते थे कि सर सय्यद तालीम के पयम्बर थे।* आज भी सर सय्यद (रह) के नाम पर अंजुमनें हैं, सोसाइटियाँ हैं, स्कूल हैं, कॉलेज हैं, और भी बहुत कुछ होगा। लेकिन क्या इन सब में सर सय्यद (रह) की रूह भी मौजूद है या सिर्फ़ नाम ही नाम है? बुज़ुर्गों के नाम जोड़े रखना और उनसे ताल्लुक़ बनाए रखना बहुत बड़ी ख़ूबी है। उनका ज़िक्र करना अच्छी बात है। उनको सवाब पहुँचाने के लिये नेकी के काम करना भी अच्छी बात है। लेकिन क्या इन सब कामों से क़ौमों की तक़दीरें बदल सकती हैं। क्या ये काम सर सय्यद (रह) की अज़ीम मेहनत का बदल हो सकते हैं? *सर सय्यद (रह) क़ौम की तरक़्क़ी और उरूज के लिये जिस बेचैनी से गुज़रे थे क्या हमारे अन्दर उस बेचैनी की कोई झलक मौजूद है। उन्होंने जो पापड़ बेले थे, क्या कोई पापड़ हमारे हिस्से में भी आया है।* अज़ीम शख़्सियतों के कारनामों का ज़िक्र करना तभी फ़ायदेमन्द होगा जबकि हम उनकी विरासत की न सिर्फ़ हिफ़ाज़त करें बल्कि उसमें बढ़ोतरी करें। जिस तरह वह औलाद नालायक़ होती है जो अपने बाप की छोड़ी हुई जायदाद को खुर्दबुर्द कर दे, बर्बाद कर दे या बेच कर खा जाए। इसी तरह वे क़ौमें भी नालायक़ होती हैं जो अपने बुजुर्गों की विरासत और छोड़े हुए इदारों को बर्बाद कर दें।
बदक़िस्मती से इस वक़्त हम हिन्दुस्तानी मुसलमानों की गिनती नाकारा क़ौम में है।* हमारे बुजुर्गों की तहज़ीब, उनकी शानदार इमारतें और हवेलियाँ, उनके इल्मी कारनामे, सबके सब हमारे शानदार माज़ी (Past) का आइना हैं। इनकी हिफ़ाज़त और इनमें बढ़ोतरी की बात करें तो सूरते हाल बयान करने के क़ाबिल नहीं है। इस सूरते-हाल का नतीजा यह है कि हमारा भविष्य अन्धकार में है। सर सय्यद (रह) का तहज़ीबुल-अख़लाक़ हो या सइंटिफ़िक सोसाइटी, हम उन दोनों को बिलकुल वैसे ही बरक़रार रखने में भी नाकाम हैं, जैसे कि वे थे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सिलसिले में हम ज़रूर कह सकते हैं कि सर सय्यद (रह) के मोहम्मडन कॉलेज को यूनिवर्सिटी तक पहुँचाने में क़ौमी लीडर्स ने अहम् रोल अदा किया है। अलबत्ता आज़ादी के बाद से फ़िरक़ापरस्त सियासत की तलवार इसके ऊपर हमेशा लटकी रहती है। यूनिवर्सिटी के वो मक़ासिद जो सर सय्यद (रह) के सामने थे उन्हें भी हमने भुला दिया है। जिसकी वजह से हम यूनिवर्सिटी से भी उतना फ़ायदा उठा पाने से महरूम हैं जितना कि उठाना चाहिये।
*मैं समझता हूँ सर सय्यद (रह) का सबसे बड़ा कारनामा यह है कि उन्होंने ज़मीन पर काम किया। ज़मीन खोदकर पेड़ लगाए। अपने लहू से उनको सींचा। जिनके मीठे फल हम खा रहे हैं।* उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी कि अपने मक़सद और काम में मुख़लिस थे। वे इस बात की दिल में आरज़ू नहीं रखते थे कि उनके बाद उनके चाहने वाले उनकी शान में क़सीदे पढ़ेंगे, बल्कि उनकी आरज़ू ये थी कि उनके बाद उनके काम को आगे बढ़ाया जाए। हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि हम ज़मीन पर काम नहीं कर रहे हैं। बल्कि हवाओं में गाँठें बाँध रहे हैं। हमारी कोशिशें सिर्फ़ बैठने, बातें करने और उठकर चले जाने तक ही सीमित रहती हैं, इससे आगे नहीं बढ़तीं।
मेरी गुज़ारिश है कि हम सर सय्यद (रह) के ख़्वाब को पूरा करने के लिये छोटे-छोटे सर्किल बनाकर काम का मंसूबा बनाएँ। कोई एक काम अपने हाथ में लें तो बेहतर नतीजे निकल सकते हैं। मसलन हम किसी मोहल्ले या किसी गाँव को टारगेट बनाएँ। तालीम, सेहत और रोज़गार में से किसी एक फ़ील्ड को चुन लें, और काम की प्लानिंग करें। इस दायरे में जितने लोग हक़दार हों उन सबके लिये काम करें। किसी भी तरह का भेदभाव न हो, न बिरादरी की बुनियाद पर न मज़हब की बुनियाद पर। *अगर देश की एक हज़ार बस्तियों और मोहल्लों में इस सतह पर काम किया जाए तो मुझे ख़ुदा की ज़ात से उम्मीद है कि वह हमारे अच्छे दिन वापस कर देगा और मुझे यह भी उम्मीद है कि क़ियामत के दिन जब सर सय्यद (रह) से सामना होगा तो कोई शर्मिन्दगी भी न होगी।*
बक़ौल *अकबर इलाहाबादी* मरहूम..
हमारी बातें ही बातें हैं सय्यद काम करता था।*
*न भूलो फ़र्क़ जो है कहने वाले करने वाले में॥*
कहा जो चाहे कोई मैं तो कहता हूँ ऐ अकबर।*
*ख़ुदा बख़्शे बहुत सी ख़ूबियाँ थी मरने वाले में॥*
*डॉ यास देहलवी* नई दिल्ली
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