इस ब्रह्मांड में सब कुछ क्षणिक और नश्वर है। कुछ भी स्थाई नहीं, सब कुछ परिवर्तनशील है
Ghaziabad : इस वाक्य की व्याख्या अधिकांश विद्वान इस रूप में करते हैं, कि बौद्ध दर्शन एक निराशावादी दर्शन है। जबकि सत्य यह है इस दर्शन के क्षणिकवाद को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। क्योंकि बुध्द यहीं पर फ़िर कहते हैं-
" हर दिन नया दिन होता है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि बीता हुआ कल कितना मुश्किल था। आप हमेशा एक नई शुरुआत कर सकते हैं।"
इन अर्थों में देखा जाए तो 'क्षणिक' शब्द का बोध हर क्षण 'नवीनता"' के बोध से है। जीवन की 'जड़ता' से नहीं 'गतिशीलता' के बोध से है। इसकी सहज-सुंदर व्याख्या दीप-शिखा के रूप में की गई है। जिस प्रकार दीपक की बाती के माध्यम से तेल की एक-एक बूंद ऊर्ध्वगामी होती है। प्रत्येक बूंद का प्रज्ज्वलन पृथक-पृथक लौ उत्पन्न करता है और इस प्रकार अनेक अनवरत लौ एक ही प्रकार की एक ही लौ के रूप में दिखाई देती है। जबकि इस प्रक्रिया में एक-एक लौ लगातार नष्ट होती रहती है और दूसरी लगातार नूतन लौ बनती रहती है। ध्यान से समझें, तो यह 'शाश्वतवाद' और 'उच्छेदवाद' का 'मध्यम मार्ग' है, जो सृष्टि की 'प्रवाहमय-स्थिरता' की ओर इंगित करता है।
एक और उदाहरण देखें - शरीर में हर क्षण अनगिनत कोशिकाएं नष्ट हो रही हैं। जबकि इसके साथ-साथ उसी क्षण अनगिनत नवीन कोशिकाएं जन्म ले रही हैं। यही नश्वरता और सृजन की समानांतर प्रक्रिया हमारे शरीर के अंगों को नित्य नवीन और स्वस्थ रखने में मददगार साबित होती है। बुध्द का अनित्यवाद हमारे चेतन और अचेतन मन के बीचों-बीच एक विशाल पुल की तरह है। जिस पर खड़े होकर हम अपनी सम्यक दृष्टि से नवीन विचार को अपनी भावना के साथ एकीकृत करके अपने व्यक्तित्व को, अपने जीवन को मनचाहा आकार दे सकते हैं। क्योंकि यदि इस क्षण हमारे जीवन में किसी भी प्रकार का दुःख है, तो उसे हम अपनी चेतना में, अपनी भावना में बदलाव कर अगले पल को सकारात्मक रूप से बदल सकते हैं। इस प्रकार देखा जाए तो अनित्ववाद हमारी सोच और हमारी भावना में बदलाव लाकर हमारे जीवन को सुन्दर बनाने के बेहतरीन टूल भी है।
इसलिए तो बुध्द कहते हैं -
"हम जीवन में वही बनते हैं, जो अपने बारे में सोचते हैं।"
यह सिर्फ एक साधारण वाक्य या सूक्ति भर नहीं है। बल्कि जीवन का मौलिक और वैज्ञानिक शोध है। जिसकी पुष्टि बुध्द के लगभग ढाई हजार साल बाद आज मनोविज्ञान कर रहा है, कि हमारा जीवन, हमारा शरीर, हमारे आस-आस जो भी घटित हो रहा है; किस प्रकार हमारे विचारों का ही परिणाम है। इस तरह देखा जाए तो बुध्द का अनित्यवाद जीवन के प्रति अधिक चैतन्य, अधिक ऊर्जावान, अधिक आशावादी, अधिक कृतज्ञता पूर्ण है।
तभी तो वे कहते हैं -
"आइए उठें और कृतज्ञ हों। क्योंकि आज यदि हमने बहुत नहीं सीखा तो भी कम से कम कुछ तो सीखा और यदि हमने कुछ नहीं सीखा तो भी कम से कम बीमार तो नहीं पड़े और अगर हम बीमार भी पड़ गए तो कम से कम हम मरे तो नहीं। इसलिए आइए, हम सब कृतज्ञ हों।"
जीवन के प्रति इससे अधिक सुंदर आशावादी सूक्ति भला और क्या होगी।
कृतज्ञता भी किसके प्रति? इस शरीर, मन, ब्रह्मांड के संगठित संतुलित समुच्चय के प्रति। इसलिए वे कहते हैं, कि यह शरीर, मन और ब्रह्माण्ड ठीक उसी तरह है, जैसे पहिए घोड़े और पालकी का संगठित रूप रथ होता है। इनमें से किसी एक के न रहने से रथ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
तो आइए इस बुद्ध जयंती पर शरीर, मन और ब्रह्माण्ड को एक साथ साध कर, सम्यक होकर, करुणामय होकर, प्रज्ञामय होकर जीवन के श्रेष्ठतम लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रतिज्ञा करते हैं…
अप्प दीपो भव
©रश्मि शाक्य
0 टिप्पणियाँ