महाराष्ट्र के 55वें निरंकारी सन्त समागम का हर्षोल्लास के साथ भव्य शुभारम्भ
गाजियाबाद ‘‘संतों के हृदय में सदैव ही सर्वत्र का भला करने का भाव रहता है एवं उनका परम धर्म मानवता की सेवा करना ही होता है।‘‘ उक्त उद्गार सत्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने शुक्रवार को महाराष्ट्र के तीन दिवसीय 55वें वार्षिक निरंकारी सन्त समागम का विधिवत् शुभारम्भ करते हुए मानवता के नाम प्रेषित अपने संदेश में व्यक्त किए।
चेंबूर स्थित सन्त निरंकारी सत्संग भवन से इस सन्त समागम का सीधा प्रसारण किया जा रहा है, जिसका आनंद घर बैठे हुए लाखों निरंकारी श्रद्धालु भक्तों एवं प्रभु प्रेमी जनों द्वारा मिशन की वेबसाईट एवं साधना टी.वी. चैनल के माध्यम से लिया जा रहा है।
सत्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने अपने भाव व्यक्त करते हुए कहा कि सभी के प्रति प्रेम, दया, करूणा, सहनशीलता का भाव मन में अपनायें जिससे कि इस संसार को स्वर्गमय बनाया जा सके।
सत्गुरू माता जी ने आगे कहा कि हमें अच्छे गुणों का आरंभ स्वयं से करते हुए इसे अपने घर-परिवार, मोहल्ले, शहर, देश एवं समस्त विश्व के लिए करना चाहिए, जिससे कि इस संसार को वास्तविक रूप में दिव्य गुणों एवं कर्माे द्वारा महकाया जा सके। निरंकारी मिशन ने सदैव ही सेवा को परम धर्म माना है अतः इसी सेवा भाव को अपनाकर मानवता के कल्याण के लिए सेवाएं निभानी हैं।
*अपरिवर्तनशील परमात्मा पर विश्वास करें*
समागम के प्रथम दिन के सत्संग समारोह के समापन पर विश्वभर के श्रद्धालु भक्तों को अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए सत्गुरू माता जी ने कहा कि विश्वास जब तक मन में न हो तब तक भक्ति संभव नहीं। अतः हमें क्षणभंगुर रहने वाली वस्तुओं पर विश्वास न करके वास्तविक रूप में स्थायी रहने वाले इस निरंकार पर विश्वास करना चाहिए जिसका अस्तित्व शाश्वत एवं अनंत है।
इसके अतिरिक्त एक अन्य उदाहरण देते हुए सत्गुरू माता जी ने भक्ति एवं विश्वास के विषय में बताया कि जब हम परमात्मा से जुड़ जाते हैं, तब हर हाल में शुकराने का भाव ही प्रकट करते है। प्रार्थना एवं अरदास हमारी भक्ति को और परिपक्व बनाती हैं फिर जीवन के उतार चढ़ाव हमारे मन को प्रभावित नहीं करते।
विश्वास को और दृ़ढता देते हुए सत्गुरू माता जी ने बताया कि हम कई बार ऐसी चालाकियां कर देते हैं जिससे हमारा कार्य उस समय तो सराहनीय हो जाता है परंतु कहीं न कहीं इस चालाकी से हम दूसरे के हृदय को आघात पहुंचा देते है। हमें ऐसा नहीं करना, जिससे कि किसी अन्य का विश्वास ही डगमगा जाये। हमें परमात्मा पर स्वयं का विश्वास तो दृ़ढ़ करना ही है, साथ ही साथ दूसरों को भी दृ़ढ़ता प्रदान करनी है।
सत्गुरू माता जी ने एक उदाहरण द्वारा समझाया कि जहां विश्वास है वहां प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जैसे कि एक बच्चे को अपनी मां के हाथ के खाने के स्वाद पर इतना विश्वास होता है कि वह अपने मित्रों को बगैर उस भोजन का स्वाद लिए ही दावे से कहता है कि मेरी मां के हाथ का खाना बहुत ही स्वादिष्ट होगा। कहने का भाव केवल यही है कि विश्वास जीवन में दृढ़ता प्रदान करता है। परमात्मा के प्रति हम पूर्ण रूप से समर्पित हो जाते हैं तब हृदय में भक्ति का भाव स्वयं ही प्रकट हो जाता है। हमारा भी विश्वास इस निरंकार पर ऐसा ही होना चाहिए।
हमें इस निरंकार प्रभु की रज़ा में बगैर शर्तो के समर्पण करना है। इस बात को स्पष्ट करते हुए माता जी ने फरमाया कि एक गुरू को उनके शिष्य ने एक उपहार दिया जिसे गुरू ने बहती हुई नदी में प्रवाहित कर दिया। गुरू ने उसे शिक्षा देने के उद्देश्य से समझाया कि यदि तुमने मुझे कुछ दे दिया तो तुम उसे मुझ पर छोड़ दो कि मैं उसका कैसा प्रयोग करता हूं ? इस उदाहरण द्वारा हमें यही शिक्षा मिलती है कि यदि हम कुछ अर्पण करतें हैं तो उसके उपरांत कुछ भी पाने की अपेक्षा न हो और यह अवस्था हमारे जीवन में तभी आती है जब हम अंदर एवं बाहर से एक समान हो जाते है।
इस वर्चुअल रूप में आयोजित संत समागम में सभी प्रतिभागियों ने अपने शुभ भाव गीतों, कविताओं एवं विचारों के माध्यम द्वारा प्रकट किए जो अनेकता में एकता का सुंदर चित्रण प्रस्तुत कर रहे थे।उल्लेखनीय है कि संत समागम के अवसर पर सत्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज के कर कमलों द्वारा ‘विश्वास भक्ति आनंद’ समागम स्मारिका का विमोचन भी किया गया, जिसमें मराठी, हिंदी, गुजराती एवं नेपाली भाषाओं में अनुभवी सन्तों के सारगर्भित लेख सम्मिलित है।
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