सन्त कबीरदास महान समाज सुधारक, मानवतावादी, पाखण्ड, झूठ के प्रबल विरोधी ज्ञानमार्गी शाखा के बेजोड़ महामानव अध्यात्मिक सन्त थे, उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव मूल्यों की रक्षा और मानव की सेवा में लगा दिया| वे सत्य, नैतिकता, सदाचार, प्रेम, ज्ञान के पुजारी थे| वे पाखण्ड, झूठ, अन्धविश्वास, मूर्ति पूजा, पत्थर पूजा के घोर विरोधी, सभी धर्मों का आदर करते थे, लेकिन कर्मकांड, परम्परावाद, रूढ़िवाद, जाति-पाँत, ऊँच-नीच, मानव-मानव में भेदभाव को समाज का कोढ़ मानते थे| इन्ही मानव मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष किया तथा झूठ और फरेब, ठग विद्या का जीवन भर खंडन करते रहे| आपका जन्म 1455ई0 में वाराणसी में हुआ था| नीरू और नीमा ने उनका लालन-पालन किया|
यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह कहाँ पैदा हुए और किसने उनका लालन-पालन किया, वे विलक्षण प्रतिभा संपन्न रहे| उन्होंने जो शिष्यों द्वारा लिखवाया या कहा वह अनुभव के आधार पर कहा| यद्यपि वह स्वयं कहते है कि “मसि कागद छुये नहीं, कलम गही ना हाथ| सुनी, सुनाई ना कही, देखन देखी बात”|| पंडों, पुरोहितों को ललकारते हुए कहा कि “तू कहता कागद की लेखी, मै कहता आँखों की देखी”| कबीर साहब सत्संग, भजन मण्डली में पद गाया करते थे, दोहे बोलते थे, उनके शिष्य उसे लिपिवद्ध कर लेते थे| कबीर साहब ने सबसे अधिक सद्भाव, भाईचारा और प्रेम देश, समाज में व्याप्त हो उस पर जोर दिया, क्योंकि भक्ति काल में समाज में धार्मिक उन्माद, कर्मकांड, झूठ का बोल-बाला था, अन्याय, अन्धकार से समाज कराह रहा था, तब उन्होंने कहा कि “पोथी पढ़ कर जग मुवा, पण्डित भया न कोय| ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय”|| कबीर साहब ने स्वर्ग, तीर्थ, व्रत, पूजा व नर्क, मनुवादी व्यवस्था की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि “गंगा नहाये यदि कोई नर तर गये तो मछली क्यों न तरी जिसका गंगा जी में ही घर है”|
सन्त कबीर भक्ति काल के महान विद्वान रामानंद के शिष्य थे, उन्होंने ही इनको राम-राम का गुरु मन्त्र दिया था, लेकिन कबीर साहब ने रामानंद के राम को ज्ञान और तर्क की कसौटी पर कसकर भजने से मना कर दिया और कहा कि मै जिस राम की उपासना करता हूँ वह सत्य और प्रेम आधारित है, वह आतंरिक है| वह कहते है कि “दशरथ सुत तिहूँ लोक बखाना, राम नाम का मर्म न जान”| कर्मकांडी, ढोंगी साधुओं, पुरोहितों, पाखंडियों को ललकारते हुए कहा कि “जो तुम लोग माला जपते हो, रात-दिन मूर्ति पूजा धर्म स्थलों में करते हो, तीर्थ, नदियों में मुक्ति के लिए, पाप धोने के लिए स्नान करते हो, न वहां स्नान से मुक्ति मिलेगी, न माला फेरने से| उन्होंने कहा कि “माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहीं| मनवा तो चहुँदीश फिरै, ऐसे सुमिरन नाही”|| माला फेरत युग गया, गया न मन का फेर| करका मनका डार दे, मनका, मनका फेर|| उन्होंने एकाग्रचित्त हो उस निराकार की सुमिरन का सन्देश निर्मल और अहंकार रहित मन से करने का उपदेश दिया तथा लगातार जोर देकर कहा कि सभी के अन्तर मन में परम सत्ता का वास है| हम अज्ञानता और अन्धकार के वशीभूत होकर उसे बाहर ढूढने में समय व्यर्थ कर रहे जैसे मृग, वह कहते है कि “कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़े बन माही| ऐसे घट में पीव है, दुनिया जाने नाही||
उनका मानना है कि जब हम सभी धर्मों और मानव जाति को समान समझेंगें तभी हमारा मन स्वच्छ होगा, उनके प्रति हमारे मन में प्रेम, दया, करुणा का भाव पैदा होगा, तब हरि को हमें खोजने की आवश्यकता नहीं होगी|
उन्होंने कहा कि “मेरो मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर| खोजत-खोजत हरि फिरै, कहत कबीर, कबीर”||
कबीर साहब सन्त, कवि ही नहीं सच्चे समाज-सुधारक भी थे| उनके मन में आम-जन के प्रति पीड़ा थी, जो लोग अहंकार के वशीभूत हो उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ देते थे, उन्हें उपदेश देते हुए कहा कि हे सामंतवादियों मेरी बात सुनो “कबीरा गर्व न कीजिए, कबहूँ न हसिबाँ कोय| अबही नाव समुद्र में, ना जाने का होई”||
कबीर साहब ने हिन्दू और मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों का भी खंडन किया, लेकिन वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर रहे| हिन्दुओं की मूर्ति पूजा का खंडन करते हुए कहा कि “पाथर पूजे हरि मिलै, तो मै पूजूं पहाड़| ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार”|| वहीँ मुसलमानों के धर्म गुरुओं से भी कहा कि “कांकर, पाथर जोडकर, मस्जिद दई चुनाय| ता चढि मुल्ला बाग़ दे, क्या बहरा हुआ खुदाय”||
कबीर ने 15 वीं शताब्दी में झूठ, भ्रम, अंधविश्वास और पाखण्ड में फसी जनता को सन्देश देते हुए कहा कि “साधो यह सारा जग बौराना, साँच कहे जग मारन धावै, झूठे जग पतियाना”|| इसका तात्पर्य है जन-साधारण सत्य पर अमल न कर झूठ पर विश्वास करता है| वह भोला-भाला अपना हित समझता ही नहीं|
आज 21 वीं सदी में भी झूठ का बोल-बाला है, अन्तर्राष्ट्रीय झूठे, झूठ और पाखण्ड, फरेब से कोई परहेज न करते, न उन्हें बोलने में शर्म आती है, जनता भी उनके मायाजाल में फ़सी है, चारों ओर नफ़रत, असहिष्णुता, जातिवाद, धार्मिक पाखण्ड फैलाया जा रहा, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी चरम पर पहुँच रही, देश झूठ के मकडजाल में फस रहा है, उसे आज कबीर साहिब के उपदेशों, ज्ञानमार्ग से बचाया जा सकता है, आज आधुनिक काल में भी महात्मा कबीर के विचार उतने ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है| देश, समाज और व्यक्ति के जीवन म नया सबेरा तब होगा जब उनके बताये मार्ग पर समाज चल सके| कबीर साहब ने शरीर छोड़ने से पहले भी पाखण्ड और प्रचलित किंवदंतियों की, कि जो काशी में शरीर छोड़ता है वह स्वर्ग में सीधा जाता है, प्रहार करते हुए कहा कि “जब काशी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा”| अर्थात राम का क्या एहसान है, यहाँ तो पाखंडियों ने यह फैला ही रखा है, वह मगहर चले गये, वहीँ पर अपना शरीर छोड़ा| आज कबीर साहब शरीर से हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी रचनाएँ साखी, शबद, रमैनी और उनका आचरण प्रबुद्ध और ज्ञानी समाज बनाने में मील का पत्थर का काम करेंगें| हम कबीर साहब के बताए मार्ग पर एक कदम चल सकें यही उनके प्रति सच्चा स्नेह होगा| डा0 भीमराव अम्बेदकर, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, रवीन्द्र नाथ टैगोर और देश, विदेश के सैकड़ों विद्वान कबीर साहब के प्रसंशक रहे है| समाजवाद, मानवतावाद की अलख जगा, जाति-धर्म की दीवार को ध्वस्त कर वह इस संसार को छोड़कर चले गये, हमें उन पर गर्व है| आज भी सन्त कबीर की देश को जरुरत है, 1556ई0 में आप ने देह त्याग दिया| डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि “कबीर वाणी का डिक्टेटर रहा है, भाषा उनके सामने लाचार हो जाती है, वह निडर, फक्कड़, मस्त मौला सन्त अर्रे देकर अपनी बात मनवा लेता है| यही विशेषता उन्हें सन्त शिरोमणि की उपाधि से विभूषित करती है”|
लेखक:
राम दुलार यादव शिक्षाविद
संस्थापक/अध्यक्ष
लोक शिक्षण अभियान ट्रस्ट
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