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दिल्ली: मानव चिंतनशील प्राणी है अतएव अनवरत अज्ञेय को ज्ञेय करना चाहता है। रहस्य को उद्घाटित किए बिना इसे चैन कहाँ! वर्तमान से संतुष्ट होता ही नहीं और भविष्य में सपनों के बुर्ज खड़ा करता रहता है। तभी तो विकास एवं परिवर्तन की प्रक्रिया सुचारु हो पाती है। यह एक श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया है, जो निरंतर चलती रहती है। समय-समय पर इसमें ऐसे लोग जुड़ जाते हैं जो नई सोच एवं नये जोश के साथ विकास की गति को तेज करने में सक्षम होते हैं। नए प्रतिमान गढ़ने में समर्थ होते हैं। नई इबारत लिख देते हैं। ऐसे लोग ही उस काल के महानायक, महाविजेता, महापुरुष कहलाते हैं जिनके प्रति आगामी पीढ़ियाँ कृतज्ञ होती हैं। पूर्वोत्तर के गठन एवं सर्वांगीण विकास में कुछ महान लोगों की भूमिका अति महत्वपूर्ण रही है जिनके हम ऋणी हैं।
पूर्वोत्तर अ-सम है, मेघों का घर है, नागा, मणि एवं मिजो भूमि है, त्रिपुर देवी एवं अरुणोदय स्थल है। वनाच्छादित एवं प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा उदाहरण है। लिखित एवं मौखिक बहुभाषा एवं बहुबोली का क्षेत्र है। सम्पर्क भाषा के रूप में हिंदी पर आश्रित है। विविध संस्कृतियों एवं जाति/उपजाति एवं प्रजाति का निवास व प्रवास है। अर्थात् कह सकते हैं कि पूर्वोत्तर क्या नहीं है! खलती रही तो बस एक कमी, शेष भारत से कुछ कटे-कटे रहना। इसमें गलती किसकी थी? इसमें गलती किसकी नहीं थी? इसके लिए हम गलत थे, आप गलत थे, ये भी गलत थे, हम सब गलत थे। शेष भारत ने इन्हें गले से लगाया नहीं। पड़ोसी देशों ने पलक पावड़े बिछाए, अपनत्व दिखाया या यूँ कहें तो जाल फेंककर लुभाया फिर फँसाया। तभी तो पूर्वोत्तर से दिल्ली की दूरी बढ़ती गई और पड़ोसी देशों की दूरियाँ घटती गई। बाहरी सांस्कृतिक चासनी में डुबो डुबोकर धर्मांतरण कराया गया। परिणाम स्वरूप पूर्वोत्तर के कुछ भाग अ-भारत जैसे लगने लगे थे।

वक्त ने करवट लिया। पूर्वोत्तर में उन लोगों की संख्या बढ़ती गई जो देश की मुख्य धारा में शामिल होने हेतु कटिबद्ध थे। इनके दृढ़ संकल्प ने रंग लाया। दिल्ली के आँचल में व्यापक वात्सल्य का स्रोत फूटा। दोनों एक-दूसरे के नजदीक आते चले गए, एक-दूजे में समाते चले गए। अभिन्न हो गए। अभेद हो गए। इस महायात्रा में साहित्य, संगीत और विविध कला के साधकों ने ऐसे प्रतिमान गढ़े जो समाज को नव स्फूर्ति देने में अद्वितीय रहा। ऐसे अगणित महानायकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कुछ विशेष लोगों को याद किए भी नहीं रहा जा सकता। 

सुप्रसिद्ध नाटककार, महाकवि और समाज सुधारक श्रीमंत शंकरदेव ने असम की सोच में आमूलचूल परिवर्तन का सूत्रपात किया। इसके लिए असम के इतिहास में वे स्वर्णाक्षर में अंकित हैं तथा दिलों में पूज्य की तरह प्रतिष्ठित। नामघर की अवधारणा, भक्ति आंदोलन तथा मूर्ति विहीन पूजा के लिए ये सदियों तक याद रखे जाएँगे। राजर्षि भाग्यचन्द्र जो मितई राजा के रूप में जाने गए, मणिपुर में रामलीला का श्रीगणेश कर वैष्णव धर्म का खूब प्रचार- प्रसार किए। श्रीराम को नए रूप में जन-जन तक पहुँचाने के संदर्भ में इनकी महती भूमिका रही है। त्रिपुरा के सचिनदेव बर्मन हिंदी और बांग्ला फिल्मों में संगीत एवं गायन के द्वारा उल्लेखनीय योगदान दिए। इन्होंने न केवल अकेले अपितु शिष्यों की विशाल संख्या खड़ी करके करोड़ों दिलों तक सुर सरगम को पहुँचाया है। चेरापूंजी में जन्में शिक्षक उ. सोसो थाम ने दो पुस्तकों की रचना करते हुए मेघालय का मान बढ़ाया। पद्मश्री और साहित्य अकादमी सम्मान से विभूषित आदिवासी साहित्यकार ममांग दई का अरुणाचल के साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। मिजोरम निवासी लल्ट्लुआंग्लियाना खियांगते मिजो कवि एवं नाटककार के रूप में प्रोफेसर रहते हुए भी उल्लेखनीय कार्य किया तथा पद्मश्री एवं साहित्य अकादमी से सम्मानित अंग्रेजी प्रोफेसर स्व. तेमसुला आओ (निधन: 9 अक्टूबर 2022) ने नागालैंड की साहित्य को समृद्ध किया इनके सारस्वत योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। इन मनीषियों ने अपने पीछे उन लोगों का विशाल सैलाब तैयार किया जो पूर्वोत्तर के विकास और पहचान की दिशा में मील के पत्थर बने।

आज हम गर्व से कह सकते हैं कि चीन, बांग्लादेश, भूटान या वर्मा जैसे पड़ोसी देश कुदृष्टि डालना छोड़ दें। पूर्वोत्तर भारत की मुख्य धारा में जुड़ चुका है। हिंदी घर-घर तक पहुँच रही है। विदेशी मोह भंग हो चुका है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक निवास करने वाले लोगों और पूर्वोत्तर के लोगों के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं है। हम सब फिर से एक हैं और एक रहेंगे भी।


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