Ghazibad: पूर्वोत्तर भारत का कण-कण जिनकी उपस्थिति का भान कराता है वे हैं दृष्टि, संवेदना और कलम के धनी श्री वीरेन्द्र परमार जी। मुजफ्फरपुर बिहार में पल- बढ़-पढ़कर करतब दिखलाने आ गए पूर्वोत्तर भारत में और सरकारी सेवानिवृत्ति के उपरान्त फरीदाबाद में जा बसे। इनकी गिनती ऐसे चंद लेखकों में की जा सकती है जिनकी पुस्तकों में लेखक परिचय 'ककहरे' तक भी नहीं होता। अपने जीवन के सक्रिय तीन दशकों में ये पूर्वोत्तर की नब्ज और धड़कन को न केवल अनुभूत किए वरन 20 से अधिक पुस्तकों में टाँककर दुनिया के समक्ष लाए।
जैसा कि सर्वविदित है कि पूर्वोत्तर भारत सांस्कृतिक प्रयोगशाला है। सेविन सिस्टर्स की संज्ञा से नामित सात राज्यों का समुच्चय है। भाषा, संस्कृति, त्योहार, लोक जीवन एवं मिथक के आधार पर वैविध्य पूर्ण पूर्वोत्तर हजारों भागों/उपभागों में बाँटा जा सकता है। इतनी व्यापक, विचित्र और संक्रमणसम्मत विविधता समझना और वर्गीकृत करके किसी निष्कर्ष तक पहुँचाना डॉ वीरेन्द्र परमार जी की लेखनी की उल्लेखनीय विशेषता है। जिन जनजाति क्षेत्रों में आज भी बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित है, जहाँ संपर्क भाषा के नाम पर 'कायिक संकेत' अभी कायम हो, जहाँ जुबान से ज्यादा दाव चलता हो, वहाँ से पिटारा भरकर जानकारी झटक लाना 'माँ सीता की खोज से कम दुष्कर नहीं।
पूर्वोत्तर के लोक जीवन पद्धति और लोक साहित्य के संदर्भ में लेखक परमार जी का कार्य स्तुत्य है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि अन्य पूर्ववर्ती हिंदी लेखक वास्तविक लेखन के प्रति पूर्ण गम्भीर नहीं रहे हैं। श्री साँवरमल सांगानेरिया, श्री रविशंकर रवि, श्री चितरंजन भारती और सुश्री डॉ अनीता पंडा ने रिक्ति को भरने का भरसक प्रयास किया है किंतु अभी बहुत कुछ करना शेष है। यद्यपि इनके अतिरिक्त दर्जनों लेखकों ने किताबों का जखीरा खड़ा किया है तथापि जमीनी हकीकत से दूर सतही स्पर्श मात्र होने के कारण उनका लेखन महत्वपूर्ण नहीं है। पूर्वोत्तर आधारित विषयों पर शोध छात्रों के लिए वीरेन्द्र परमार जी का विपुल साहित्य और व्यक्तिगत मार्गदर्शन वरदान स्वरूप है।
विश्वविद्यालयी घिसी-पिटी परम्परागत शोध व्यवस्था लीक से बाहर नहीं निकलना चाहिए। वही पुराने विषय, वही पुराने शोधों की कॉपी-पेस्ट और वही पुरानी धारणाएँ नवीनता को परितः हतोत्साहित करती हैं। जबकि चाहिए यह कि पूरी निष्ठा और लगन से पुरातन के आधार पर नूतन खोज की जाए और शोधों को मौलिक व महत्वपूर्ण बनाया जाए। जिस दिन शोध निर्देशक और शोधार्थी सनिष्ठ दृढ़ संकल्पित हो जाएंगे उस दिन डॉ वीरेन्द्र परमार जी का लेखकीय श्रम व्यापक रूप में असल में सम्मानित होगा। पूर्वोत्तर को शेष भारत ही नहीं अपितु समस्त विश्व में समुचित पहचान मिलेगी। हम आशान्वित नजरों से प्रतिक्षारत हैं।
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