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मोह

मोह का बंधन न होता त्याज्य केवल,
जागरण का बीज इसमें ही पनपता।
टूट जाता है मनुज नित हार से जब,
मोह अपनों का, हृदय में जोश भरता।।

मोह ना होता तो जग जुड़ता न ऐसे,
कब किसे कर्त्तव्य का यूँ ध्यान होता!
कृष्ण की गीता से अर्जुन कब जगा था!
पुत्र ना खपता अगर, क्या भान होता!

तू अगर इस हार से असहाय होगा,
कौन  बूढ़े  बाप  की लाठी बनेगा!
कर्ज  माँ  का   है तुम्हारे सर अभी भी,
सोच ले, पत्नी का हर संबल ढहेगा।।

पुत्र-पुत्री, बंधु-बांधव,मित्र, परिजन,
टूट ना जाएँ, तुझे जुड़ना पड़ेगा।
दुश्मनों को हो खबर, तू गिर गया है,
पूर्व  इससे मोहवश  उठना पड़ेगा।।

मोह जीवन में अमिय रस कुम्भ होता,
आप से अपनों का यह बंधन प्रबल है।
यह मनुजता के लिए अनिवार्य, अक्षय,
शस्त्र एवं  शास्त्र दोनों से सबल है।।

राम ने शबरी को माता - सा बताया,
कृष्ण ने भी द्रौपदी की लाज राखी,
बाण की शैया चुने थे कुरु पितामह,
संत कबिरा ने सुनाया सबद-साखी।।

मोह  में  पन्ना  ने अपना पुत्र वारा,
मोह में बिस्मिल-भगत ने प्राण त्यागे।
मोह में 'इनसे हैं हम' विरचित हुई है,
मोह में अवधेश जुडते नेह - धागे।

मोह पालो  किंतु  रक्खो ध्यान ये भी
मोह हो कर्त्तव्य का साथी - सहायक।
मोह का विस्तार हो सारे जगत में,
मोह का अधिपति बने जगती सुनायक।।


डॉ अवधेश कुमार अवध
साहित्यकार व अभियंता
संपर्क - 8787573644

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