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धार्मिक ग्रंथों की पुनः मीमांसा आवश्यक: डॉ अवधेश कुमार अवध

Ghaziabad : समय के साथ प्राचीन काल के कई शब्दों के अर्थ बदल चुके हैं। कुछ शब्दों के अर्थ अपने पर्याय से इतर रूढ़ हो गए हैं। उनका रूढ़त्व विपरीत अर्थ या अनर्थ तक पहुँच गया है। संस्कृत या हिंदी काव्यों का काव्य सौष्ठव भी आज जन साधारण के लिए कठिनाई का कारण है। इसी संदर्भ में आचार्य केशव दास को "कठिन काव्य का प्रेत" का संबोधन मिला था। अलंकारों के झंकारों में काव्य में रस एवं रुचि की निष्पत्ति सुगम होती है जो समझ में न आने पर नुकसानदायक भी है। इसी तरह शब्द शक्ति त्रय यथा- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना को आज के समय में या तो हम समझना भूल गए हैं या समझना नहीं चाहते और स्वार्थवश दुरुपयोग भी करते हैं। 

एक और कमी प्रायः देखी जा सकती है। किसी विषय को ठीक से जाने या समझे बिना अपनी विशेषज्ञ राय प्रस्तुत करना। "नीम हकीम खतरे जान" केवल झोला छाप डाक्टरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि प्रायः सभी क्षेत्रों में इसके अंगद पाँव जमे हैं। विशेषज्ञता की योग्यता के बिना ही बिना किसी लाज-शर्म के तत्संबंधी विषय में राय लेने और देने का खेल, सामान्य जन मानस के हृदय में गलत धारणाओं को स्थापित कर देता है। वर्तमान की गलती भविष्य के लिए मानक बन जाती है। इससे किसी भी समाज का सिर्फ और सिर्फ बुरा ही होता है।

इसका सर्वाधिक प्रभाव हमारे 
पावन धर्म ग्रंथों पर पड़ा है और पड़ भी रहा है। बिकाऊ विद्वानों या अल्पज्ञानियों ने धर्मग्रंथों के साथ भारी पैमाने पर प्रक्षेपण किया है जो अब आक्षेप या संदेह या भ्रम के रूप में सामने आ रहे हैं। अल्पज्ञानियों द्वारा भावार्थ से परे अनुवाद भी किसी "गधे के बाप" को "फॉदर ऑफ डंकी" कहने को सही ठहराता है। इस अकाट्य सत्य को मानने में किसी को असुविधा नहीं होनी चाहिए कि हमारी धार्मिक विरासत और सांस्कृतिक धरोहर दुनिया में सबसे अच्छी और वस्तुनिष्ठ है। शास्त्रार्थ और संशोधन की इसके अलावा कहीं भी छूट नहीं है। हमें इसका लाभ उठाना चाहिए। संदर्भ और प्रसंग से नाता तोड़कर उसके मर्म को समझे बिना सतही स्तर पर व्याख्या होने से हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर प्रतिबल से टकराकर विकृति की ओर अग्रसर है। इन्हें सुरक्षित और संरक्षित रखना हमारा प्रथम और प्रधान कर्त्तव्य होना चाहिए। कोई विधर्मी दूषित मानसिकता से सवाल दर सवाल खड़े करे उससे पहले हमें एक जुट होकर सर्वमान्य पद्धति से इसका निराकरण करना चाहिए। संदेह और भ्रम की धूल झाड़ना भी हमारा ही काम है। इसके लिए आवश्यक है कि समर्थ और त्यागी विद्वानों की टोली बनाकर पुनः मीमांसा की जाए। 

डॉ अवधेश कुमार अवध
साहित्यकार व अभियंता
संपर्क - 8787573644

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