महात्मा ज्योतिबा फूले आधुनिक भारत की सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक क्रांति के अग्रदूत सच्चे अर्थों में मानवतावादी थे, वे गुलामी के घोर विरोधी, आजादी के प्रबल पक्षधर, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षणिक क्षेत्र में किसी प्रकार की असमानता और गुलामी के कट्टर विरोधी थे| वे किसान, मजदूर की कठिनाइयों को दूर करने के लिए संघर्ष करते रहे, कारखानों के मालिक और जमींदारों के जुल्म से पीड़ित जन-जन के लिए उनके पक्ष में डट कर खड़े हो जाते थे, हिन्दू धर्म में व्याप्त पाखंड, छुवाछूत, अंध विश्वास, रूढ़िवाद, कर्मकांड, कुरीतियों, अन्याय, अत्याचार को सामाजिक कोढ़ मानते थे, तथा ईश्वर के मामले में किसी बिचौलिये पण्डे, पुरोहितों को अनावश्यक मान, लोगों को धार्मिक कार्य स्वयं करने की प्रेरणा देते रहे, उन्होने महिला सशक्तिकरण, उनके सम्मान में अनेकों कार्य किए, नर-नारी समानता के लिए लगातार समाज को जागरूक किया, शूद्र और अति पिछड़ी जतियों के लिए शिक्षा का प्रबंध किया, दलित और हर वर्ग की महिलाओं के लिए पाठशाला का निर्माण करवाया, शिक्षा महिलाओं को सुलभ हो अपनी धर्मपत्नी सावित्री बाई फूले को शिक्षित किया, विधवाओं के पुनर्विवाह का जोरदार समर्थन और प्रचार किया, ब्राह्मण विधवाओं के मुंडन के विरुद्ध आवाज उठा नाइयों की हड़ताल करवा दी, अनाथ और आश्रयहीन महिलाओं के लिए अनाथाश्रम और प्रसूति गृह का निर्माण करवाया, ऐसे बहु आयामी व्यक्ति का जन्म 11 अप्रैल 1827 में गोविंद राव फूले के घर हुआ, इनकी माता चिमणा बाई का बाल्यकाल में ही देहांत हो गया, इनका लालन-पालन सगुणा बाई ने किया, स्वयं ज्योतिबा ने लिखा है कि मै जन्म देने वाली माँ को तो नहीं जानता लेकिन हर तरह की शिक्षा और माँ की भूमिका सगुणा बाई जी ने निभाया, उन्होने मुझे शिक्षा के लिए प्रेरणा देते हुए नैतिक मूल्यों, ईमानदारी से दबे, कुचले, वंचित की सेवा का पाठ पढ़ाया, हमारे पिता को कुछ प्रतिक्रियावादी ताकतों ने नर्क का डर दिखा, पढ़ाई से वंचित करवा दिया, लेकिन लिजिट साहब, गफ्फार बेग मुंशी ज्योतिबा की शिक्षा में रुचि, लगन, समझदारी और परिश्रम करने की तैयारी, शिक्षा के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति, दूर दृष्टि को समझते हुए गोविंदराव को ज्योतिबा को शिक्षा देने के लिए तैयार कर लिया, तथा कहा कि शिक्षा इस बच्चे के लिए आवश्यक क्यों है, पिता ने पश्चाताप करते हुए पुन: 1841 में स्कॉटिश मिशन स्कूल में प्रवेश ज्योतिबा को दिलवा दिया, स्कॉटिश मिशन स्कूल में ज्योतिबा को हिन्दू धर्म में उंच-नीच, छुवाछूत, अन्याय, शोषण विद्यमान है, धर्माचरण में निहित स्वार्थ का भी अनुभव हुआ, तथा मानवीय कर्तव्यों और अधिकारों का भी ज्ञान हुआ, राजनैतिक और धार्मिक गुलामी उनकी नजर में घृणास्पद थी, यद्यपि व्यापारी और उच्च वर्ण के लोग अंग्रेजों के शासन के प्रसंशक थे, लेकिन पहाड़ी जन-जातियों, कोली, नाईक, रामोशी के नवयुवकों की वीरता की कहानियाँ चारों तरफ फैल रही थी, कि ये तो अंग्रेजों के कुशासन के विरुद्ध विद्रोह कर रहे है, वे गरीबों के प्रति हमदर्द और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है, ज्योतिबा फूले और उनके मित्रों को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा मिली|
ज्योतिबा राव फूले पर अमेरिकी लेखक थॉमसपेन का प्रभाव उनके द्वारा लिखित ग्रंथ “मनुष्य के अधिकार” का बेहद गहरा पड़ा, थॉमसपेन का मानना था धर्म किसी व्यक्ति का निजी विषय है वह चाहे ईश्वर को माने, चाहे न माने, मेरा मन ही मेरा चर्च है, ईश्वर के मामले में किसी बिचौलिये की आवश्यकता नहीं है, ईश्वर के नाम पर धर्म का बाज़ार अनावश्यक, अनिष्टकारी और पाखंड सर्जक है, इसलिए देश वंश, पंथ, लिंग आदि के आधार पर मनुष्यों में भेद करना प्राकृतिक योजना के विरुद्ध है, हर एक-दूसरे मानव की कद्र करनी चाहिए, और सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए, यही मानव धर्म है, पेन ने नारी दास्य विमोचन के बारे में लेख लिखा उन्होने कहा समस्त विश्व की नारी चाहे वह किसी वर्ग की हो शोषण की शिकार रही है, उन्होने स्त्री-पुरुष की समानता पर ज़ोर दिया, आर्थिक और सामाजिक गुलामी से वंचितों की मुक्ति और नारी दास्य विमोचन दोनों विषयों के लिए ज्योतिबा काम करना चाहते थे, उनकी विशेष रुचि थी|
ड़ा0 अम्बेद्कर ने कहा है कि “महात्मा फूले के शिक्षा प्रसार के कार्य से ही अछूतों को मनुष्यता की प्राप्ति हुई, स्वयं ज्योतिबा ने कहा कि वंचित समाज और हर वर्ग की महिलाओं को मानसिक गुलामी से मुक्ति का मार्ग शिक्षा है, उन्होने कहा कि “विद्या बिन मति गयी, मति बिन गई नीति, नीति बिन गति गई, गति बिन गया वित्त, वित्त बिन चरमराये लोग, एक अविद्या ने किये इतने अनर्थ” | ज्योतिबा ने प्रथम कन्या पाठशाला 1848 में शुरू कर अपने उद्देश्य को लोगों के सामने रखा, उस समय वह 20 वर्ष के थे, नारी और वंचित समाज की शिक्षा के प्रति प्रतिवद्ध हो सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया, पहली अध्यापिका सावित्री बाई फूले ने उनका भरपूर सहयोग किया, लेकिन प्रतिक्रिया वादी ताक़तें इनके पिता को बहका, धार्मिक पाखंड की बातकर, नर्क का डर दिखा इन दोनों को घर से निकलवा दिया, लेकिन ज्योतिबा हिम्मत से काम ले, स्वयं निर्माण कार्य के व्यवसाय में लग गए, परिवार के खर्च के बाद जो भी धन बचता, वह शिक्षा और चिकित्सा पर समाज के लिए जीवन भर व्यय करते रहे, तथा सत्य शोधक समाज नामक संस्था संचालित किया, पाखंड, भ्रम, गुलामी, गरीबी, अशिक्षा को मिटाने का प्रयास किया, महिलाओं के सम्मान और सशक्तिकरण के लिए तथा हर वर्ग की शिक्षा के लिए किसान, मजदूर की लड़ाई लड़ते हुए 27 नवंबर 1890 को उन्होने अंतिम सांस ली, उनके कार्य को आगे चलकर ड़ा0 भीमराव अंबेडकर ने पैनी धार दी| उसका परिणाम वंचित वर्ग सम्मान जनक, गौरव शाली जीवन स्वतन्त्रता पूर्वक जी रहा है| आज 21वीं सदी में शिक्षा, चिकित्सा का स्तर गिरता जा रहा है, शिक्षा से समाज में भाईचारा, प्रेम, सहयोग की भावना बढ़नी चाहिए लेकिन अशांति, नफरत, द्वेष, अहंकार, असहिष्णुता बढ़ती जा रही है, इन महापुरुषों ने कभी सोचा न होगा, कि ऐसी स्थिति होगी, हमे पूरे मनोयोग से समरस और समावेशी समाज बनाने का संकल्प लेना चाहिए, यही इन महात्मा के प्रति आदर होगा|
लेखक : राम दुलार यादव, शिक्षाविद संस्थापक/अध्यक्ष लोक शिक्षण अभियान ट्रस्ट
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