एक मजदूर ने सिखाया मुझकों,
हुनर को तराशना।
एक मजदूर ने सिखाया मुझकों,
गरीबी में पलना।
हां वह मजदूर है जिसके हाथों,
की लकीरों में दिखती है,
माथे की शिकन।
एक मजदूर ने सिखाया है,
कर्म ही पूजा है।
एक मजदूर की कीमत,
उसे खरीदने वाले ने न जानी।
धन दौलत और शान ओ शौकत में,
बैठे हुए क्या जाने
मजदूर के पांव की चुभन,
उनके कांटों भरे डगर ही,
उनके लिए होते हैं सुहाने सफर।
मजदूर के बिना यह जग है सूना।
जाने अनजाने में,
उनका हक है छिना।
एक मई समर्पित है मजदूर दिवस को,
पर हर एक दिन,
रचनाकार
कृष्णा मानसी
(मंजू लता मेरसा)
बिलासपुर, (छत्तीसगढ़)
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