धरती बिन आकाश के जैसे
बाती बिना प्रकाश के जैसे
बदली नीर बिना हो जैसे
फाग अबीर बिना हो जैस
आधे हैं सब इक दूजे बिन
अधरों की मुस्कान बुझी है
आँखें भी कितनी तरसी हैं
सावन बैरी बन बैठा है
आँगन भी रूठा ऐंठा है
चातक प्यासा ज्यों स्वाति बिन
वैसे ही आधे हम तुम बिन
प्रेम दीवानी बाट निहारे
पलकन से नित द्वार बुहारे
कौन घड़ी लौटें चितवन सुख
कौन घड़ी हर लें विरहा दुख
ज्यों सावन आधा बरखा बिन
वैसे ही आधे हम तुम बिन
मिलन संदेसा कोयल लावे
बेला शुभ घर आँगन आवे
सोलह सब श्रृंगार करूँ मैं
नभ धरती रंग प्रीत रचूं मैं
भोर अधूरी ज्यों सविता बिन
वैसे ही आधे हम तुम बिन
प्रीत अल्पना द्वार सजाऊँ
पिय पिय धुन दिन रैन मैं गाऊँ
कण कण अनुरागी हो जाये
क्षण क्षण हिमपागी हो जाये
रहे अधूरा न कोई मन
पूर्ण सकल ये जग हो जाये
प्राची मिश्रा
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