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उपन्यास मां - भाग 1- अंधेरा कमरा:- रश्मि रामेश्वर गुप्ता

बिलासपुर छत्तीसगढ़ :- तुम्हारी मां अब कुछ दिनों की मेहमान है। सहसा किसी का फोन आया। मिनी घबरा उठी। उसे लगा ऐसा कैसे हो सकता है ? अभी तक तो सब कुछ ठीक था। आंसू थम नहीं रहे थे। पति को घर आते ही बताई। सभी बेचैन हो उठे। दूसरे दिन सुबह मां के पास जाने की योजना बनी। मां से मिलने की तड़प सुबह जल्दी तैयार होकर मिनी अपने पति और अपनी बेटी के साथ मां के द्वार पर पहुंची। देखी एक घुप अंधेरा छोटा सा कमरा है जिसमें लोहे का एक पलंग बिछा हुआ है। मच्छरदानी लगी हुई है। मिनी बेटी के साथ कमरे के अंदर गई। बेहद बदबू से भरा कमरा था। लाइट जलाई। मच्छरदानी उठाकर देखी। एक कंकाल के रूप में महिला पलंग में लेटी हुई है जिसके बदन में एक ब्लाउज है नीले रंग की और कमर में साड़ी का फटा हुआ तिकोना कपड़ा जैसे नवजात शिशु को पहनाया जाता है, बंधा हुआ है। ब्लाउज पर कम से कम 15 दिनों का जूठा भोजन लगा हुआ है। जो गाल गोरे और गुलाबी हुआ करते थे अंदर गहराई में चले गए हैं। आंखें धसी हुई हैं। शरीर कंकाल मात्र शेष है। पैर मुड़े हुए हैं यहां तक की एक पैर ऐसा लग रहा है जैसे पोलियो ग्रस्त हो चुका हो, वो भी दूसरे पैर पर लिपटा हुआ। दूसरा पैर घुटने के पास से चिपका हुआ । खींचने से भी दोनों पैर सीधे होने का नाम ना ले । पूरे बदन पर मल मूत्र जाने कब से चिपके हुए हैं। पैर के तलवे घावों से भरे हुए हैं। पलंग पर बिछा कपड़ा मल मूत्र से भीगा हुआ है। धीरे से करवट ली मां ने। पीछे कमर में इतना बड़ा बेड सोल कि एक उंगली घुस जाए। मिनी और उसकी बेटी अवाक होकर यह दृश्य देख रहे थे । सर घूम रहा था । पलंग के पास स्टूल में एक कटोरा रखा था जिसमें कुछ सूखी रोटियां चिपकी हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे मां ने हाथ से उससे रोटियां निकाल कर खाने की कोशिश की हो ।कमरे में सिर्फ एग्जास्ट के लिए बनाई गई छोटी झिर्री थी और कोई खिड़की नहीं । कमरे से अटैच एक छोटा वॉशरूम जहां मल मूत्र वाले कपड़े पड़े थे। बदबू से खड़े होने की भी हिम्मत नहीं थी। जो मां कभी सेठानी की तरह लगती थी उनकी ऐसी हालत देखकर स्तब्ध मिनी ने मां के पास जाकर बस इतना कहा- "मां".......... क्रमशः

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