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उपन्यास मां - भाग 5- डॉ. साहब:- रश्मि रामेश्वर गुप्ता

बिलासपुर छत्तीसगढ़:-माँ की हालत ऐसी थी कि किसी डॉ. को घऱ में बुलाकर दिखाने से वो निश्चित तौर पर यही कहते कि जब तक चल रहा है चलने दो क्योंकि उनकी स्थिति दिखाने लायक थी ही नही। मिनी अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती। उसने कभी सपने में भी नही सोचा था कि अपनी माँ को वो कभी इस स्थिति में देखेगी।
मिनी को समझ नही आता था आखिर वह करे तो क्या करे। जब बहुत परेशान हो जाती तो पूजा कमरे में जाकर भगवान से विनती करती कि भगवान मां को स्वस्थ कर दे और मिनी को शक्ति प्रदान करे बुद्धि प्रदान करे। उचित मार्गदर्शन दे।
उसे ये भी लगता था कि वह अपनी बात किससे कहे। कैसे बताए कि ये वही माँ है जो कुछ माह पहले कॉलोनी में कभी सेठानी की तरह बैठी रहती थी। सुबह शाम टहलने जाया करती थी। कॉलोनी के लोग मां को अब इस हालत में देखकर पहचान भी नही पाएंगे। तमाम तरह की बातें रात को मिनी के दिमाग में आते और आंसू की बरसात लेकर आते। मन में मष्तिष्क में उथल-पुथल मचा देते।
उसने ठान लिया की आखिर मिनी के हाथ में जितना है वो उतना अवश्य करेगी। ईश्वर ने चाहा तो मां शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएगी। 
13 दिसंबर को मिनी मां को लेकर आई थी। जैसे तैसे दिसंबर का माह बीता। जनवरी का महीना भी बीत गया। ईश्वर की कृपा से माँ का शरीर कुछ भर गया जो कि कंकाल हो चुका था । शरीर के सारे मैल धीरे-धीरे साफ हो चुके थे। बेडसोल ठीक हो चुका था। पैर के तलवे पर जो घाव थे वो ठीक हो चुके थे। 
मिनी ईश्वर को बहुत बहुत धन्यवाद देती रही। पति को बहुत बहुत धन्यवाद देती रही क्योकि इस हालत में मां को लाने में पतिदेव का बहुत बड़ा योगदान था। अगर वो माँ को ले के ही नही आते तो मिनी तो ये सोच-सोचकर मर जाती कि जिस मां ने मिनी को पढ़ाया लिखाया अपने पैरो पर खड़ा होना सिखाया, जिसने मिनी की शादी की जिसने मिनी के बच्चों का भी पालन-पोषण किया जिसने मिनी को जीना सिखाया उस मां को इस हालत में छोड़कर मिनी का आना नामुमकिन था। अगर मिनी मां को नही लाती तो वो इस दृश्य को याद कर-करके अपने प्राण त्याग देती शायद इस बात से पतिदेव वाकिफ थे। उन्होंने कभी अपनीं मां और मिनी की मां में कोई भी भेद नही किया। और मिनी की मां भी अपने दामाद जी को अपने प्राणों से भी प्रिय मानती थी।
                        मिनी के पति ने मां के लिए हर प्रकार की सुलभ और दुर्लभ दोनो प्रकार की दवाई उपलब्ध करवाई। सुबह मां को जड़ी-बूटी को पीसकर उसका रस पिलाना होता था। कुछ घंटे के बाद होमियोपैथी दवाई देनी होती थी फिर कुछ खिलाने के बाद एलोपेथी दवाई देनी होती थी।
                        मां के लिए सभी तन मन धन से भिड़े थे। माँ अब इस स्थित में थी कि कोई अब उन्हें देखे तो उनका इलाज कर सके। उनसे बात कर सके। जब मां को लेकर आये थे तब लगता था जैसे उनके शरीर के सभी अंग खराब हो चुके हैं । मां का पाचन तंत्र तो पूर्णतया खराब हो चुका था इसलिए उन्हें कब क्या हो जाता था वो मां को भी पता नही चल पाता था। छोटे बच्चे की तरह बिस्तर में रेग्जीन बिछाकर रखना पड़ता था। केवल मस्तिष्क कुछ-कुछ काम कर रहा है। शायद इसीलिए मिनी ने माँ को लाने की हिम्मत भी कर ली। 
                        अब तक कॉलोनी में भी किसी को पता नही था कि मिनी माँ को ले आई है। मिनी की कॉलोनी के हर सदस्य बहुत ही अच्छे है। पढ़े-लिखे सुशिक्षित अपने अपने काम में व्यस्त रहने वाले, बिना वजह किसी को परेशान न करने वाले, एक दूसरे के सुख-दुख में साथ देने वाले परंतु इसके बावजूद भी जब तक मां की स्थिति सुधर नही गयी मिनी को हिम्मत नही हुई कि मिनी किसी को बुलाकर अपनी मां से मिला भी सके। सिर्फ अपने पति और बच्चों के साथ मां की स्थिति सुधारने में लगी रही। और किसी का साथ था तो वो थे आँसू और ईश्वर की प्रार्थना। मिनी को इतना व्यस्त रहना होता था कि दिन रात कैसे बीत रहे हैं उसे कुछ पता नही होता था। जब मां की स्थिति कुछ सुधरी तो पति ने एक फिजियोथेरेपिस्ट को घर बुलाया जिससे माँ के मुड़े हुए पैरों का भी ईलाज हो सके। 
                        मिनी को इस बात की तसल्ली थी कि जिस मां को परिवार के सारे लोग देखकर जा चुके थे वो भी इसलिए कि बस वो मुश्किल से 2 या 3 दिन की मेहमान है उनका इस तरह ठीक हो जाना मिनी के लिए ईश्वर की कृपा ही थी................. क्रमशः 

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