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11 अक्टूबर अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर विशेष, धरती धोरां की बहादुर बेटी पठानी...दे रही संदेश, बदल रही जिंदगानी!

साधना सोलंकी, वरिष्ठ लेखक, पत्रकार

बीकानेर जिले का छोटा सा गांव लूणखां ढाणी। गांव के किसान मजूर सत्तार खां और राजा खातून की पांच बेटियों में सबसे छोटी बेटी पठानी की कहानी उन लोगों के लिए प्रेरणा है, जो हाथ होते हुए भी कहते हैं, मुश्किल है जिंदगी...हार गए!
 बेटी पठानी के तो दोनों हाथ पांच साल की उम्र में ही उससे एक दुर्घटना में बिछुड़ गए थे, फिर भी यह बेटी मायूस नहीं हुई। उसने विपरीत परिस्थितियों में ना सिर्फ रोजमर्रा के काम कटे हाथों से निपटाए, बल्कि शिक्षा की अलख से आज अपने अध्यापिका बनने के सपने को जगमग करने की दिशा में जी जान से जुटी है। वह दिन दूर नहीं, जब पठानी शिक्षिका बन समाज के लिए मिसाल बनेगी। पढ़िए और पढ़ाइए पठानी की कहानी,पठानी की जुबानी...

बचपन में हुआ हादसा
सोलह साल पहले जब मैं पांच साल की थी। धोरों पर हम खेलते थे। रेतीली माटी में लोटपोट होते, एक दूसरे पर रेत उछालते! रेगिस्तानी रेत बड़े कमाल की होती है। इससे कितना ही लिपटो...चिपटो, लोट लगाओ, यह नहीं चिपकती। गांव के हम उम्र बच्चों के साथ धोरों पर दौड़ने की कोशिश में पांव धंस जाते तो बड़ा मजा आता... ताली पीटते, दौड़ते जाने कब कैसे धोरों से गुजरते बिजली के तारों ने मुझे पकड़ लिया और फिर एक अंधेरा, जिसमें मैं डूबती चली गई, बेहोश हो गई।

होश आया तो हाथ नहीं थे
 अस्पताल के बिस्तर पर जब आंख खुली तो कोहनी से नीचे दोनों हाथों पर पट्टियां बंधी थी और मां रो रही थी। पिता ने छाती पर हाथ मार कहा, इस लाश को अब कैसे संभालेंगे...!

शुरू हुआ सफर!
पठानी नाम को सार्थक करना था, तय कर लिया कि हार नहीं मानूंगी। शुरू में अपनी लाचारी पर रो पड़ती थी। धोरों पर जाती थी और लकड़ी को दोनों ठूंठ बने हाथों से पकड़ने की कोशिश करती। धीरे धीरे रेत पर चित्र बनाती थी, हवा का झोंका आता तो ये मिट जाते और मैं फिर बनाने की कोशिश करती। मां मेरे शौक को समझती थी। मेरी चोटी बनाते वह रोने लग जाती। मुझे हाथ से खाना खिलाती, कपड़े पहनाती और मैं सोचती आखिर मां कब तक मेरी मदद करेगी। मैं झाड़ू पकड़ झाड़ू लगानी का प्रयास करती और करती रहती। फिर मैं झाड़ू आराम से लगाने लगी, आटा गूंध रोटी पोने लगी। नहाना धोना सब करने लगी। मुझे मेंहदी लगे हाथ पांव बहुत लुभाते थे और मैं मेंहदी लगाने में भी पारंगत होने लगी। इस बीच मैं अपनी पढ़ाई भी कर रही थी। 

यादें पाठशाला की

मुझसे बड़ी चार बहने और हैं। वे नवीं कक्षा तक ही पढ़ पाईं। उन सब की शादियां हो गई, क्योंकि गांव में लड़कियों को ज्यादा नहीं पढ़ाया जाता। पर मुझसे कौन विवाह करेगा, ऐसा सोच पिता ने मेरा दाखिला गांव के स्कूल में करवा दिया। शुरू में स्कूल के बच्चे मुझ पर हंसते, मजाक बनाते कि तेरे तो हाथ ही नहीं है, बिना हाथ की कैसे पढ़ेगी। बिना हाथ की सुनना मुझे झकझोर जाता और मैंने इस वाक्य को ही अपना हथियार बना लिया। कंचन मेरी प्रिय सहेली है, वह सदा मेरा हौसला बढ़ाती रही। बस का सफर करते मैं अक्सर गिर जाती थी, और जब उठती तो जिंदगी से मेरी लड़ाई और तेज हो जाती। मैंने अपने आंसुओ पर भी काबू पाना सीख लिया, क्योंकि रोने से जीवन की समस्याओं का समाधान नहीं होता। मैंने पैदल चलने को प्राथमिकता दी। घर से पांच छह किमी दूर स्कूल मैं पैदल ही आती जाती।

सैकेंडरी सीनियर सैकंडरी परीक्षा प्रथम श्रेणी में

मेरे अध्यापक, मेरे घर वाले और मैं बहुत खुश हुए, जब मैंने स्कूली शिक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। मैं अपने माता पिता, परिजनों पर गर्व करती हूं, जिनकी मदद से मैं जिंदगी जीना सीख पाई। पानी भरना, झाड़ू बुहारू, खेत का काम, रसोई, मेंहदी मांडना जैसे काम अब मेरे लिए सहज हैं। गोल गप्पे भी बना लेती हूं।

चार कदम दूर टीचर बनना 

मैं प्रीबीएड उत्तीर्ण कर चुकी हूं। एक साल को एक कदम मानूं तो अपने अध्यापिका बनने की हकीकत से मैं चार कदम ही दूर हूं। घड़साना से मैं यह कोचिंग कर रही हूं। इसके बाद रीट का पेपर और मैं बन जाऊंगी टीचर! बहुत आनंद का दिन होगा, जब बच्चे बैठ कर मुझसे पढ़ेंगे...सवाल करेंगे! हंसना...खिलखिलाना होगा और मैं आगे और आगे बढ़ती जाऊंगी!

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